आज सुबह उठने के बाद से ही मन कुछ विचलित सा था. कई दिनों से मीडिया २६ नवम्बर को लेकर कई लेख और कई अनुभव, प्रकाशित कर रहा है. आज पूरा एक साल हो गया उस मनहूस दिन को, जब हम से कोई साठ साल पहले बिचड़े भाइयो नए मुंबई में आकर कहर बरसाया था.
निहत्थो पर शस्त्र चलाने के लिए किसी शौर्य की आवश्यकता नहीं होती, उसके लिए तो ज़रुरत होती है कायरता और द्वेष से भरे हुए कलुषित मन की. मासूम बच्चो, लचर बुढो और उज्वल भविष्य का सपना लिए काम पर निकले हुए सेकड़ो युवाओ को इतनी बर्बरता से मारने वालो को तो नरक का दरोगा भी अपने यहाँ जगह न दे.
कुछ ही दिनों पहले पढ़ा की जिन ९ आतंकियों को पुलिस नए मार गिराया था, उन्हें अभी तक ज़मीन नसीब नहीं हुई है और उनके शव आज भी मुर्दाघर में पड़े है. भारतीय मुस्लिम संगठनो नए उन्हें अपनाने से इनकार कर उनके किये कार्य को अल्लाह और इस्लाम के खिलाफ बताया है.
खैर, शव को आग या मिटटी नसीब हो न हो, मानवता पर लगे इस ज़ख्म को आज एक साल पूरा हो गया और ये ज़ख्म आज भी उतना ही हरा है जितना पहले दिन था.
Thursday, 26 November 2009
Sunday, 1 November 2009
खिड़की से बाहर
ये कविता मैं अपने छोटे से परिवार को समर्पित करता हूँ , आप सभी है तो ज़िन्दगी मैं कोई कमी नहीं.
अपनी खिड़की से बाहर दुनिया हमेशा हसीं नज़र आती है.
घर की छोटी सी दुनिया और छोटी नज़र आती है.
अपनों के प्यार से ज्यादा गैरों के ताने ही मज़ा देते है.
ममता के रस में डूबे निवालों की जगह बेरुखे चेहरे चखने की सजा देते है.
बाप की चिंता, माँ की ममता, सब पीछे रह जाता है.
भाई का लड़ना, बहिन का चिड़ना, बस यादें ही बन जाता है.
कहने को व्यापर नहीं पर हम प्यार का सौदा करते है.
इस रंग बदलती दुनिया में हम साथ तराजू रखते है.
मौल भावः के चक्कर में, हम दाम लगाते जाते है,
खिड़की के बाहर के संसार में खोते जाते है.
खिड़की के अन्दर की दुनिया में कुछ विरले लोग ही रहते है,
मील के पत्थर के जैसे, वो स्थायी ही रहते है.
उनको जब भी याद करो , वो दौडे दौडे आते है,
आगा पीछा सब भूल के, बस बाहों में खो जाते है,
अपनी खिड़की से बाहर दुनिया हमेशा हसीं नज़र आती है.
घर की छोटी सी दुनिया और छोटी नज़र आती है.
अपनों के प्यार से ज्यादा गैरों के ताने ही मज़ा देते है.
ममता के रस में डूबे निवालों की जगह बेरुखे चेहरे चखने की सजा देते है.
बाप की चिंता, माँ की ममता, सब पीछे रह जाता है.
भाई का लड़ना, बहिन का चिड़ना, बस यादें ही बन जाता है.
कहने को व्यापर नहीं पर हम प्यार का सौदा करते है.
इस रंग बदलती दुनिया में हम साथ तराजू रखते है.
मौल भावः के चक्कर में, हम दाम लगाते जाते है,
खिड़की के बाहर के संसार में खोते जाते है.
खिड़की के अन्दर की दुनिया में कुछ विरले लोग ही रहते है,
मील के पत्थर के जैसे, वो स्थायी ही रहते है.
उनको जब भी याद करो , वो दौडे दौडे आते है,
आगा पीछा सब भूल के, बस बाहों में खो जाते है,
Thursday, 29 October 2009
ये शहर, वो शहर
ऐसे ही चला जा रहा था अपने अपने बचपन के शहर में, हर नुक्कड़ हर गली को ध्यान से देखता हुआ।
हाथ में थैला और दिल में कुछ अजीब सी अनछुई और अल्हड सी यादें।
हर मन्दिर, हर दरगाह मुडमुड कर देखता हुआ, याद करता जा रहा था, हर वो पल बिताया हुआ।
कहीं से कोई आवाज़ देकर रोक लेता तो अच्छा लगता,
कभी में किस्सी को हाथ दिखाकर बुला लेता तो अच्छा लगता।
यहाँ सब मुझे जानते है, मेरी आवाज़, मेरी हस्ती को पहचानते हैं,
मिलते है तो दिल को छु लेते हुए प्यार से पूछते है की कैसा है और कहा है।
उनसे बतियाते हुए मैं कभी नही थकता, उन अपनों की चिंता करना बिल्कुल नही अखरता, मिलता जाता हु सबसे हंसकर, सोचता हु की कही और कोई मेरी इतना चिंता क्यूँ नही करता।
जिस दफ्तर मैं अपना सारा दिन बिताता हु, वह कोई मुझे नही जानता,
इतने सालो के बाद भी, बिना आई-कार्ड के नही पहचानता।
सुबह लेट पहुंचू ऑफिस तो कोई खैरियत नही पूछता।
पूछते है तो सिर्फ़ ये की लेट क्यों हुआ और कल का काम अब तक क्यों नही हुआ।
रात मैं घर लौटते वक्त रास्ते मैं कोई मन्दिर क्यों नही पड़ता,
मेरे बचपन के शहर की तरह, यहाँ सुबह सुबह कोई नमाज़ क्यों नही पढता।
इस शहर में हर बरस मेला क्यों नही लगता,
और छोटी सी बात पर आपस में कोई क्यों नही झगड़ता।
इस अनजान शहर में अपनेपन के अलावा कोई कमी नही है,
पर मेरे पुराने शहर की लाख कमियों में भी एक अनपढ़ सी खुशी क्यों है।
कल ये नया रंगीन शहर, रोजाना की तरह अपने बेरंग दिन को झेलेगा,
और वहा मेरे बचपन का शहर रंगों से खुल कर खेलेगा।
...... सिद्धार्थ
हाथ में थैला और दिल में कुछ अजीब सी अनछुई और अल्हड सी यादें।
हर मन्दिर, हर दरगाह मुडमुड कर देखता हुआ, याद करता जा रहा था, हर वो पल बिताया हुआ।
कहीं से कोई आवाज़ देकर रोक लेता तो अच्छा लगता,
कभी में किस्सी को हाथ दिखाकर बुला लेता तो अच्छा लगता।
यहाँ सब मुझे जानते है, मेरी आवाज़, मेरी हस्ती को पहचानते हैं,
मिलते है तो दिल को छु लेते हुए प्यार से पूछते है की कैसा है और कहा है।
उनसे बतियाते हुए मैं कभी नही थकता, उन अपनों की चिंता करना बिल्कुल नही अखरता, मिलता जाता हु सबसे हंसकर, सोचता हु की कही और कोई मेरी इतना चिंता क्यूँ नही करता।
जिस दफ्तर मैं अपना सारा दिन बिताता हु, वह कोई मुझे नही जानता,
इतने सालो के बाद भी, बिना आई-कार्ड के नही पहचानता।
सुबह लेट पहुंचू ऑफिस तो कोई खैरियत नही पूछता।
पूछते है तो सिर्फ़ ये की लेट क्यों हुआ और कल का काम अब तक क्यों नही हुआ।
रात मैं घर लौटते वक्त रास्ते मैं कोई मन्दिर क्यों नही पड़ता,
मेरे बचपन के शहर की तरह, यहाँ सुबह सुबह कोई नमाज़ क्यों नही पढता।
इस शहर में हर बरस मेला क्यों नही लगता,
और छोटी सी बात पर आपस में कोई क्यों नही झगड़ता।
इस अनजान शहर में अपनेपन के अलावा कोई कमी नही है,
पर मेरे पुराने शहर की लाख कमियों में भी एक अनपढ़ सी खुशी क्यों है।
कल ये नया रंगीन शहर, रोजाना की तरह अपने बेरंग दिन को झेलेगा,
और वहा मेरे बचपन का शहर रंगों से खुल कर खेलेगा।
...... सिद्धार्थ
मनुष्यता
मनुष्यों के इस जंगल में मनुष्यता कहाँ गई।
सभ्यता के इस आडम्बर में, चंचलता कहाँ गई।
मस्तिक्ष के इस जाल में, कई कई विचित्रता।
हर कहीं विवशता और हर कहीं अशक्तता।
किंतु परन्तु के चक्रव्यूह में, कई कई प्रश्न है।
परस्तिथि की धुरी पर घूमता ये विश्व है।
अंतर्मन के द्वंद में जीतता क्यों कंस है।
कृष्ण की आराधना में लीन फ़िर भी भक्त है।
विश्वास को लिए हुए, निर्भय निडर ये रक्त है।
विज्ञान से अज्ञान हो चंचल मद मस्त है।
.... सिद्धार्थ
सभ्यता के इस आडम्बर में, चंचलता कहाँ गई।
मस्तिक्ष के इस जाल में, कई कई विचित्रता।
हर कहीं विवशता और हर कहीं अशक्तता।
किंतु परन्तु के चक्रव्यूह में, कई कई प्रश्न है।
परस्तिथि की धुरी पर घूमता ये विश्व है।
अंतर्मन के द्वंद में जीतता क्यों कंस है।
कृष्ण की आराधना में लीन फ़िर भी भक्त है।
विश्वास को लिए हुए, निर्भय निडर ये रक्त है।
विज्ञान से अज्ञान हो चंचल मद मस्त है।
.... सिद्धार्थ
नए मित्र
एक अज्ञानी मन में कई शंकाए होती है, कई भ्रांतिया होती है. जो मन एक बार ज्ञान के सागर में गोते लगा लेता है, उसे किसी तरह की गलत अवधारणा नहीं रहती. मेरा अज्ञानी मन ये सोच बैठा था की अपनी भावनाए व्यक्त अंग्रेजी में ही की जा सकती है और ये ब्लॉग जगत सिर्फ अंग्रेजी समझ रखने वालो के लिए ही बना है. इसी सोच के चलते अपने अंग्रेजी ब्लॉग पर ही ध्यान केन्द्रित करते हुए हमने अपने लेखक मन की व्याकुलता को शांत किया. आप मेरी अंग्रेजी रचनाये http://whitehopes.blogspot.कॉम/ पर पढ़ सकते है.
इसे तकनिकी युग का वरदान ही कहेंगे की हिंदी प्रेमियों के लिए भी ब्लॉग्गिंग जगत ने सामान प्रेम भावः दर्शाया है. और इस ब्लॉग को सिर्फ चंद दिन ही हुए है लेकिन हमे कई मित्र मिल चुके है जो हमारी ही तरह हिंदी लेखन को लेकर काफी उत्सुक है.
काफी कुछ सिखने एवं लिखने की कामना लिए आगे बढ़ने की मनोकामना रखता हूँ.
आपका मित्र
सिद्धार्थ
इसे तकनिकी युग का वरदान ही कहेंगे की हिंदी प्रेमियों के लिए भी ब्लॉग्गिंग जगत ने सामान प्रेम भावः दर्शाया है. और इस ब्लॉग को सिर्फ चंद दिन ही हुए है लेकिन हमे कई मित्र मिल चुके है जो हमारी ही तरह हिंदी लेखन को लेकर काफी उत्सुक है.
काफी कुछ सिखने एवं लिखने की कामना लिए आगे बढ़ने की मनोकामना रखता हूँ.
आपका मित्र
सिद्धार्थ
चाय का समय
घर में अकेलापन काटने को दौड़ता है, यही विचार मन में लिए हुए वह बरामदे में ही बैठी रही। कभी तीन उधमी मगर लाडले बच्चो को अपनी ममता से नहलाते हुए नही थकती थी, मगर आज इस उजाड़ घर में एक छाया मात्र बन के रह गई है वो।
आँगन में खड़ी कार को देखा तो बड़े बेटे की जिद याद आ गई की कैसे उसने एक हफ्ते तक घर में कोहराम मचाया था और तभी शांत हुआ था जब अपने पिताजी को कार खरीदने को राज़ी कर लिया था। शाम के ४ बज चुके थे तो आदतन पैर रसोई की तरफ़ उठ गए , चाय बनाने के लिए, लेकिन बीच में ही फफक कर रो पड़ी , ना जाने कौनसी बीती बात आँखों को भिगो गई और वो चाय बिना पीये ही फ़िर से बहार आ गई।
शाम ढलने से पहले ही मुह्हल्ले के बच्चो ने सामने पड़े मैदान पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी। कितनी यादें है जो सब भूल चुके है, लेकिन ये नही भूलती। नही भूलती की कैसे दिन भर रसोई में खटने के बाद भी उसके बच्चे भूक भूक चिल्लाते थे और उसकी नाक में दम करे रहते थे। कैसे बड़े को पढ़ाई के लिए जबरदस्ती बिठाना पड़ता था तो छोटा बाहर निकलने के नाम से ही घबराता था और उस चोटी सी चुहिया को बन्ने सवरने से ही फुर्सत नही मिलती थी।
आज बड़ा कलेक्टर बन चुका है और हर महीने इक दफे अपने गाव ज़रूर आता है तो छोटा , जो घर से बाहर ही नही निकलता था, अब सालो साल लौट कर नही आता, इक बार जो विदेश गया फ़िर पलट कर घर की और नही देखा उसने और उस चोटी सी चुलबुली लड़की को घर गृहस्थी सँभालते हुए देख कर वो गर्व से फूली नही समाती।
अपने दुःख को थोडी ही देर में भुला कर, इक संतोष की साँस के साथ वो फ़िर चाय पीने के लिए घर के अन्दर लौट आई।
आँगन में खड़ी कार को देखा तो बड़े बेटे की जिद याद आ गई की कैसे उसने एक हफ्ते तक घर में कोहराम मचाया था और तभी शांत हुआ था जब अपने पिताजी को कार खरीदने को राज़ी कर लिया था। शाम के ४ बज चुके थे तो आदतन पैर रसोई की तरफ़ उठ गए , चाय बनाने के लिए, लेकिन बीच में ही फफक कर रो पड़ी , ना जाने कौनसी बीती बात आँखों को भिगो गई और वो चाय बिना पीये ही फ़िर से बहार आ गई।
शाम ढलने से पहले ही मुह्हल्ले के बच्चो ने सामने पड़े मैदान पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी। कितनी यादें है जो सब भूल चुके है, लेकिन ये नही भूलती। नही भूलती की कैसे दिन भर रसोई में खटने के बाद भी उसके बच्चे भूक भूक चिल्लाते थे और उसकी नाक में दम करे रहते थे। कैसे बड़े को पढ़ाई के लिए जबरदस्ती बिठाना पड़ता था तो छोटा बाहर निकलने के नाम से ही घबराता था और उस चोटी सी चुहिया को बन्ने सवरने से ही फुर्सत नही मिलती थी।
आज बड़ा कलेक्टर बन चुका है और हर महीने इक दफे अपने गाव ज़रूर आता है तो छोटा , जो घर से बाहर ही नही निकलता था, अब सालो साल लौट कर नही आता, इक बार जो विदेश गया फ़िर पलट कर घर की और नही देखा उसने और उस चोटी सी चुलबुली लड़की को घर गृहस्थी सँभालते हुए देख कर वो गर्व से फूली नही समाती।
अपने दुःख को थोडी ही देर में भुला कर, इक संतोष की साँस के साथ वो फ़िर चाय पीने के लिए घर के अन्दर लौट आई।
सब कुछ बदल गया
आज जिंदगी जीने के मायने बदल गए,
कुछ एहसास दिल से निकल गए।
जिन लम्हों को लेकर हसी आ जाती है,
आज वही लम्हे हमे रुसवा कर गए।
कुछ अपने थे हमारे जीने का कारण,
आज वही अपने हमे पराया कर गए।
कभी जिन्होंने बदला था हमारा नजरिया ज़माने के लिए,
आज वोही हमारी दुनिया बदल गए।
कुछ एहसास दिल से निकल गए।
जिन लम्हों को लेकर हसी आ जाती है,
आज वही लम्हे हमे रुसवा कर गए।
कुछ अपने थे हमारे जीने का कारण,
आज वही अपने हमे पराया कर गए।
कभी जिन्होंने बदला था हमारा नजरिया ज़माने के लिए,
आज वोही हमारी दुनिया बदल गए।
माँ
हर आहट पर कान धरे, वो सोई सोई जगती माँ,
जाडे की मुश्किल सुबहो में , चाय पिलाने उठती माँ।
घर की कुंडी, फाटक, खिड़की, हर कोने में दिखती माँ,
हर मुश्किल को धक्का देके राह दिखाती, हंसती माँ।
चोट लगे जब बच्चो को तो मलहम लेप लगाती माँ,
बच्चो की खुशियों में छुप कर, अपनी चोट छुपाती माँ,
ईटें, गारा, पत्थर, चुना को स्वर्ग बनाती देवी माँ,
हर जीवन को अर्थ सिखाती हम सबकी वो प्यारी माँ,
घर के सुख को आगे रख कर, पीछे चलती निश्चल माँ,
धीरे धीरे मुरझाती और धीरे धीरे घिसती माँ।
छोटे छोटे पौधों को वृक्ष बनाती जननी माँ,
उड़ जाते सब पंछी बनकर, हाथ हिलाती, रोती माँ।
अध् सोई, पथराई आँखों से राह तकती बूढी माँ,
कच्चे मैले रस्ते पर, आस टिकाये बैठी माँ।
जाडे की मुश्किल सुबहो में , चाय पिलाने उठती माँ।
घर की कुंडी, फाटक, खिड़की, हर कोने में दिखती माँ,
हर मुश्किल को धक्का देके राह दिखाती, हंसती माँ।
बच्चो के चेहरों को चख कर, अपना पेट है भरती माँ,
उनकी ही चिंता को लेकर रातो में है खटती माँ।चोट लगे जब बच्चो को तो मलहम लेप लगाती माँ,
बच्चो की खुशियों में छुप कर, अपनी चोट छुपाती माँ,
ईटें, गारा, पत्थर, चुना को स्वर्ग बनाती देवी माँ,
हर जीवन को अर्थ सिखाती हम सबकी वो प्यारी माँ,
घर के सुख को आगे रख कर, पीछे चलती निश्चल माँ,
धीरे धीरे मुरझाती और धीरे धीरे घिसती माँ।
छोटे छोटे पौधों को वृक्ष बनाती जननी माँ,
उड़ जाते सब पंछी बनकर, हाथ हिलाती, रोती माँ।
अध् सोई, पथराई आँखों से राह तकती बूढी माँ,
कच्चे मैले रस्ते पर, आस टिकाये बैठी माँ।
गोगोल की रचना ओवेरकोट
मेरे बचपन से ही मुझे लघु कथाएँ पढने का काफ़ी शौक रहा है। हर सामान्य बालक की तरह बचपन में चम्पक, चंदामामा , नंदन, बालहंस, सुमन सौरभ एवं विभिन्न कॉमिक्स पढ़कर ही अपनी गर्मी की छुट्टियाँ व्यतीत किया करता था। अंग्रेजी भाषा की और रुझान और उसके महत्व को समझना मेरी कल्पना से परे हुआ करता था। इसलिए आज सैंकडो अंग्रेजी उपन्यास पड़ने एवं समझने के पश्चात् भी जिस अनुराग की अनुभूति अपनी मातृभाषा के प्रति होती है, वो अंग्रेजी के प्रति नही होती।
आज वर्षो अंग्रेजी भाषा पढने और बोलने के बाद, संभवतः हिन्दी व्याकरण एवं भाषा प्रवाह में कई त्रुटियां सम्मिल्लित हो चुकी है परन्तु अपनी भाषा के प्रति प्रेम में कोई कमी नही हुई है। इस मातृभाषा प्रेम के लिए मेने अंग्रेजी भाषा का तिरस्कार कभी नही किया और कोतुहोल के साथ अंग्रेजी भाषा की सुन्दरता को सराहा है।
अपने इस भाषा प्रेम के चलते मुझे काफ़ी लेखक एवं उनकी प्रसिद्द रचनाओ को अभी तक पढ़ लेना चाहिए था लेकिन ऐसा नही हुआ। कभी मार्गदर्शन तो कभी ध्यान की कमी के चलते, में अपनी रूचि को ज्यादा समय नही दे पाया।
कुछ दिनों पहले एक मित्र के ब्लॉग पर गोगोल की रचना ओवेरकोट के बारे में समीक्षा पढ़ी और इस कहानी को पढने की इच्छा जागृत हुई। इस कहानी को रूसी साहित्य में एक विशेष स्थान प्राप्त है। इस कहानी के नायक "एकाकी अकाकिएविच" को एक कुशल लिपिक परन्तु असफल सामाजिक प्राणी के रूप मेंप्रस्तुत किया है। वह अपने जीवन में सिमित संभावनाओ से समझौता कर चुका था। वह ज्यादा पाने की चाह में नही था और किस्सी भी तरह के बदलाव से बचने की हर सम्भव कोशिश करता था। यहाँ तक की जब सर्दी में उसे नए ओवेरकोट की आवशयकता हुई तो उसने कई बार पुराने कोट की मरम्मत पर जोर दिया लेकिन जब दरजी ने उसकी हर दरख्वास्त को नकार दिया तब मन मार के उसने नए कोट के विषय में सोचना शुरू किया।
लेखक ने बड़ी ही कुशलता से दर्शाया है की नीरस व्यक्ति के जीवन में भी एक ध्येय हो तो वो उसे पाने की कोशिश करता है और सफलता मिलने पर उसे एक परम सुख की प्राप्ति होती है और हम सब के जीवन में भी ऐसे ही कई मौके आते है जब हमारी खुशी की कोई सीमा नही होती, और वो खुशी हमसे छीन ली जाए तो जीवन में एक शुन्य रह जाता है।
कहानी में ओवेरकोट तैयार होने पर जब नायक उसे पहन के अपने कार्यालय में जाता है तो उसे एक विशेष सम्मान की दृष्टी से देखा जाता है। इस प्रकार का सम्मान उसे कभी नही मिला था और समाज ने उसे हमेशा तिरस्कार की दृष्टी से ही देखा था। इस सम्मान की वजह ओवेरकोट को मान के नायक फूला नही समाता और जब उससे उसका ओवेरकोट छीन लिया जाता है और वरिष्ठ अधिकारियो द्वारा उसका अपमान किया जाता है तो वो इस सदमे को झेल नही पाता और दम तोड़ देता है।
इस प्रथम रचना को पढने के बाद गोगोल एक उदास लेखक प्रतीत होता लेकिन उसकी इस रचना ने मुझमे एक जिज्ञासा उत्पन्न कर दी है उसकी बाकी रचनाये पढने के लिए।
आज वर्षो अंग्रेजी भाषा पढने और बोलने के बाद, संभवतः हिन्दी व्याकरण एवं भाषा प्रवाह में कई त्रुटियां सम्मिल्लित हो चुकी है परन्तु अपनी भाषा के प्रति प्रेम में कोई कमी नही हुई है। इस मातृभाषा प्रेम के लिए मेने अंग्रेजी भाषा का तिरस्कार कभी नही किया और कोतुहोल के साथ अंग्रेजी भाषा की सुन्दरता को सराहा है।
अपने इस भाषा प्रेम के चलते मुझे काफ़ी लेखक एवं उनकी प्रसिद्द रचनाओ को अभी तक पढ़ लेना चाहिए था लेकिन ऐसा नही हुआ। कभी मार्गदर्शन तो कभी ध्यान की कमी के चलते, में अपनी रूचि को ज्यादा समय नही दे पाया।
कुछ दिनों पहले एक मित्र के ब्लॉग पर गोगोल की रचना ओवेरकोट के बारे में समीक्षा पढ़ी और इस कहानी को पढने की इच्छा जागृत हुई। इस कहानी को रूसी साहित्य में एक विशेष स्थान प्राप्त है। इस कहानी के नायक "एकाकी अकाकिएविच" को एक कुशल लिपिक परन्तु असफल सामाजिक प्राणी के रूप मेंप्रस्तुत किया है। वह अपने जीवन में सिमित संभावनाओ से समझौता कर चुका था। वह ज्यादा पाने की चाह में नही था और किस्सी भी तरह के बदलाव से बचने की हर सम्भव कोशिश करता था। यहाँ तक की जब सर्दी में उसे नए ओवेरकोट की आवशयकता हुई तो उसने कई बार पुराने कोट की मरम्मत पर जोर दिया लेकिन जब दरजी ने उसकी हर दरख्वास्त को नकार दिया तब मन मार के उसने नए कोट के विषय में सोचना शुरू किया।
लेखक ने बड़ी ही कुशलता से दर्शाया है की नीरस व्यक्ति के जीवन में भी एक ध्येय हो तो वो उसे पाने की कोशिश करता है और सफलता मिलने पर उसे एक परम सुख की प्राप्ति होती है और हम सब के जीवन में भी ऐसे ही कई मौके आते है जब हमारी खुशी की कोई सीमा नही होती, और वो खुशी हमसे छीन ली जाए तो जीवन में एक शुन्य रह जाता है।
कहानी में ओवेरकोट तैयार होने पर जब नायक उसे पहन के अपने कार्यालय में जाता है तो उसे एक विशेष सम्मान की दृष्टी से देखा जाता है। इस प्रकार का सम्मान उसे कभी नही मिला था और समाज ने उसे हमेशा तिरस्कार की दृष्टी से ही देखा था। इस सम्मान की वजह ओवेरकोट को मान के नायक फूला नही समाता और जब उससे उसका ओवेरकोट छीन लिया जाता है और वरिष्ठ अधिकारियो द्वारा उसका अपमान किया जाता है तो वो इस सदमे को झेल नही पाता और दम तोड़ देता है।
इस प्रथम रचना को पढने के बाद गोगोल एक उदास लेखक प्रतीत होता लेकिन उसकी इस रचना ने मुझमे एक जिज्ञासा उत्पन्न कर दी है उसकी बाकी रचनाये पढने के लिए।
Tuesday, 27 October 2009
Baadh ka Mahatav
हमारे देश में हर बरस आदमी का जन्मदिन आये न आये, बाढ़ का प्रकोप ज़रूर आता है. इस प्रकोप के चलते कईओं के घर उजड़ जाते है तो कईयों के बस भी जाते है, किस्सी के बच्चे नदी के पानी में बह कर समंदर में मिल जाते है तो किस्सी और के बच्चे उसी समंदर को पार कर जाते है. अब आगे बढ़ने के लिए किस्सी और के कंधे पर पाँव रखना तो लाजमी है और अगर वो कंधे किस्सी गरीब के हो तो इसमें आला अफसरों का तो कोई दोष नहीं.
माना की कभी कभी ज़रुरतमंदों की अनदेखी हो जाती है लेकिन सरकार पूरी तरह सजग है गरीबो को उनका हक दिलवाने के लिए. गरीबो के उत्थान के लिए विभिन्न योजनाये ठंडे बसते में संभाल के रखी हुई है. जैसे ही सरकार को पूर्ण बहुमत प्राप्त होगा, वो अपने सहोगी दलों से विनती करेगी की इन योजनायों को अतिशीघ्र लागू किया जाए.
अब आप कहेंगे पूर्ण बहुमत प्राप्त होने के बावजूद सहयोगी दलों से सहमती की क्या आवशकता. अब जनाब, बहुमत तो हाथ का मैल है, आज है , कल नहीं है. इसी कल की चिंता को ध्यान में रखते हुए सभी से सदभाव बनाये रखना ही सरकार का परम धर्म है.
कल अगर सरकार गरीबो को लेकर ज्यादा भावुक हो जाये और अपना संतुलन खो बैठे तो आप तो सरकार को ही दोष देंगे न की चुनाव का अतिरिक्त व्यय आपके सर मढ़ दिया इन गरीबो के हितेषियों ने. इसलिए सरकार हर कदम बहुत फूक फूक कर रखती है, इसीलिए सरकार की चाल भी धीमी हो जाती है.
इसलिए बाढ़, चुनाव और सरकार में बड़ा गहरा तालुक्क है. बाढ़ से बचने के लिए अगर उपाय समय रहते कर लिए गए तो बाढ़ पीड़ित कोष खाली रह जाएगा और हमारे देश का भविष्य बनाने वाले आला अफसरों के होनहार बच्चे विदेशो में अपने सपने साकार भी नहीं कर पायेंगे. अब गरीब तो फिर भी अपने सपनो से समझोता कर ले, लेकिन अमीर संतानों को क्यों इस अभाव का अहसास होने दिया जाए.
इसलिए बाढ़ हमारे समाज की प्रगति में एक अहम् भूमिका निभाती है और इसे महत्व को समझ पाना हम गरीबो की संकुचित सोच से परे है.
माना की कभी कभी ज़रुरतमंदों की अनदेखी हो जाती है लेकिन सरकार पूरी तरह सजग है गरीबो को उनका हक दिलवाने के लिए. गरीबो के उत्थान के लिए विभिन्न योजनाये ठंडे बसते में संभाल के रखी हुई है. जैसे ही सरकार को पूर्ण बहुमत प्राप्त होगा, वो अपने सहोगी दलों से विनती करेगी की इन योजनायों को अतिशीघ्र लागू किया जाए.
अब आप कहेंगे पूर्ण बहुमत प्राप्त होने के बावजूद सहयोगी दलों से सहमती की क्या आवशकता. अब जनाब, बहुमत तो हाथ का मैल है, आज है , कल नहीं है. इसी कल की चिंता को ध्यान में रखते हुए सभी से सदभाव बनाये रखना ही सरकार का परम धर्म है.
कल अगर सरकार गरीबो को लेकर ज्यादा भावुक हो जाये और अपना संतुलन खो बैठे तो आप तो सरकार को ही दोष देंगे न की चुनाव का अतिरिक्त व्यय आपके सर मढ़ दिया इन गरीबो के हितेषियों ने. इसलिए सरकार हर कदम बहुत फूक फूक कर रखती है, इसीलिए सरकार की चाल भी धीमी हो जाती है.
इसलिए बाढ़, चुनाव और सरकार में बड़ा गहरा तालुक्क है. बाढ़ से बचने के लिए अगर उपाय समय रहते कर लिए गए तो बाढ़ पीड़ित कोष खाली रह जाएगा और हमारे देश का भविष्य बनाने वाले आला अफसरों के होनहार बच्चे विदेशो में अपने सपने साकार भी नहीं कर पायेंगे. अब गरीब तो फिर भी अपने सपनो से समझोता कर ले, लेकिन अमीर संतानों को क्यों इस अभाव का अहसास होने दिया जाए.
इसलिए बाढ़ हमारे समाज की प्रगति में एक अहम् भूमिका निभाती है और इसे महत्व को समझ पाना हम गरीबो की संकुचित सोच से परे है.
Monday, 12 October 2009
Dosti Aur Dushmani
किसी ने खूब लिखा है , जी किसी ने क्या अपने निदा साहब ने लिखा है और क्या लिखा है साहब!!
"वक़्त रूठा रहा बच्चे की तरह, राह में कोई खिलौना न मिला,
दोस्ती भी तो निभाई न गयी, दुश्मनी में भी अदावत ना हुई."
हलक में हाथ डालकर जैसे ज़बान ही निकल ली हो, काफी देर चुपचाप बैठे रहने के बाद हमने अपने बिछडे हुए दोस्त के प्रति दिखाई गयी पल भर की गैरजिम्मेदारी को भूलने की कोशिश की. हर पल एक दुसरे का ध्यान रखने वाली दो बैलो को जूरी सी थी हमारी दोस्ती. हम कुछ वक़्त के लिए अपनी दुनिया में मसरूफ क्या हुए, वो हमे पराया करके चला गया.
हीरा और मोती, इन दो बैलो की कहानी बचपन में पढ़ी थी लेकिन उस कहानी में भी अपनी दोस्ती को बचने का एक मौका तो उस बैल को भी मिला था और यहाँ तो बचपन का साथी ही बिना कुछ कहे इतना दर्द सह गया और हम बेखबर हुए अपनी ही दुनिया में डूबे रहे.
जाने वाले को कौन रोक सकता है साहब, वाह निदा साहब वाह, आप तो दिल को छु गए.दोस्ती और दुश्मनी में सूत भर का ही फर्क होता है, ये समझने में हमे ज़माने लग गए.
"वक़्त रूठा रहा बच्चे की तरह, राह में कोई खिलौना न मिला,
दोस्ती भी तो निभाई न गयी, दुश्मनी में भी अदावत ना हुई."
हलक में हाथ डालकर जैसे ज़बान ही निकल ली हो, काफी देर चुपचाप बैठे रहने के बाद हमने अपने बिछडे हुए दोस्त के प्रति दिखाई गयी पल भर की गैरजिम्मेदारी को भूलने की कोशिश की. हर पल एक दुसरे का ध्यान रखने वाली दो बैलो को जूरी सी थी हमारी दोस्ती. हम कुछ वक़्त के लिए अपनी दुनिया में मसरूफ क्या हुए, वो हमे पराया करके चला गया.
हीरा और मोती, इन दो बैलो की कहानी बचपन में पढ़ी थी लेकिन उस कहानी में भी अपनी दोस्ती को बचने का एक मौका तो उस बैल को भी मिला था और यहाँ तो बचपन का साथी ही बिना कुछ कहे इतना दर्द सह गया और हम बेखबर हुए अपनी ही दुनिया में डूबे रहे.
जाने वाले को कौन रोक सकता है साहब, वाह निदा साहब वाह, आप तो दिल को छु गए.दोस्ती और दुश्मनी में सूत भर का ही फर्क होता है, ये समझने में हमे ज़माने लग गए.
दुनियादारी.. Part1
सर्दी का मौसम था, दोपहर का समय था, सूरज आसमान में हथखेलिया कर रहा था और ज़मीन पर रेंगते हुए इंसानीनुमा कीडो पर अपने प्यार रूपी धुप की चटकदार किरने बिखरे कर उनके अन्तर मन में उत्साह की भावनाए प्रफ्फुलित कर रहा था। रहीम अपने दोस्त राम के यहाँ खेलने जाने की तैयारी कर रहा था। अम्मी मेरे नए जूते कहा है। अब इतना छोटा भी नही था वो, आठवी कक्षा में पहुच चुका था। सो, अम्मी ने खीज कर कहा, कब तक नवाब की तरह रहेगा, ज़माने में इन चीजों की कोई जगह नही, एक दिन बाहर जायेगा तो सारी दुनियदारी समझ आ जायेगी। कहे देती हु, इस राम से दूर ही रहा कर तू, पता नही कब क्या फसाद करवाएगी तेरी ये दोस्ती।
अब अम्मी क्या समझे की रहीम शीर कोरमा छोड़ सकता है लेकिन राम के यहाँ खेलने जाना कतई नहीं। इधर राम के यहाँ भी कुछ ऐसा ही माहोल था। राम स्कूल से आते ही बसता फेक कर खेलने जाने की तैयारी कर रहा था। माँ जल्दी कुछ खाने को दे दे, रहीम आता ही होगा। हाँ, बड़ा लाटसाब है न तेरा रहीम। पता नही इसे उस लड़के में क्या दीखता है, इतने दोस्त है इसके ब्रह्मिण परिवार से, लेकिन इसका तो जी उस मुल्ले से ही मिलता है। बुदबुदाती हुई, राम की माँ उसके लिए रोटिया सेकने लगी।
दोनों पहली कक्षा से साथ पढ़ रहे थे लेकिन दोस्ती कोई चौथी कक्षा में हुई। राम अपनी स्कूल से घर लौट रहा था की कुछ लड़को ने रास्ते में रोक लिया। ये कोई आज की बात नही थी, आए दिन इसी तरह के लड़के राम को रोक कर परेशान किया करते थे। अब बित्ते भर का राम, गोरा चिट्टा और चुई मुई की तरह नाजुक, कोई जोर से चिल्ला दे तो मैदे जैसे गोरे गाल, लाल हो जाया करते थे। तो पूरे कसबे के आवारा लड़को के लिए वो एक निरीह लक्ष्य हुआ करता था जिसे मार कर वो ख़ुद का रॉब जमाया करते थे। राम उनसे लड़ना नही चाहता था पर उससे भी अहम् बात ये थी की राम लड़ना जानता ही नही था।
लेकिन उस दिन, उसी की कक्षा का एक हत्ता कट्टा लड़का, रहीम, दूर से ये तमाशा देख रहा था, उसका सहपाठी भी था लेकिन उसके सम्बन्ध राम से कुछ ख़ास मधुर नही थे। दोनों ही शिक्षको के पसंदीदा छात्रो में से एक थे। रहीम ने कभी हारना नही सिखा था लेकिन कक्षा में प्रथम स्थान को लेके राम और रहीम हमेशा टकराते रहते थे। रहीम पड़ने के साथ खेल कूद में तेज़ था तो राम भी पढ़ाई में अव्वल होने के साथ, अच्छा कलाकार था। कोई नाटक हो, भाषण हो या फ़िर कवितायेँ, राम सभी में पारंगत था। इसलिए इन दोनों का व्यक्तित्व घर्षण होना स्वाभाविक था। लेकिन आज जो रहीम की आखो के सामने हो रहा था वो उसके लिए इन सब व्यक्तिगत मुद्दों से ऊपर था। कहने को तो रहीम भी चौथी कक्षा का ही छात्र था लेकिन उसका डील डोल देख कर, सभी उसी आगे जाके पहेलवान बन्ने की नसीहत देते थे। वो राम को बचाने बीच में कूद पड़ा और उसके आते की नज़ारा बदल गया।
जो आवारा लड़के राम के बाल पकड़े उसे मट्टी में घसीट रहे थे, वो रहीम के आते ही अपनी सलामती की दुआ मांगे लगे। फ़िर भी किस्सी तरह वो पांचो हिम्मत करके रहीम पर टूट पड़े और उसे मारने लगे। रहीम ने काफ़ी देर तक संगर्ष किया लेकिन परिणाम उसके पक्ष में नही रहा। अब ये कोई फ़िल्म तो थी नही की वो अकेला उन पाँच पर भारी पड़ता। एक और चीज जो उन आवारा लड़को के पक्ष में थी और वो ये की ताकत और हिम्मत में भले ही रहीम उन पर भरी पड़ता लेकिन वो फ़िर भी एक इंसान था जिसमे इंसानियत कूट कूट कर भरी हुई थी जबकि इन आवारा लड़को को जानवर बनने के लिए सिर्फ़ एक पूँछ की जरूरत थी।
रहीम का ये हाल देख कर राम उसे अपनी साइकिल पर घर छोड़ने गया और रस्ते भर बस वो रोते जा रहा था। रहीम ने उसके कंधे पर हाथ रख के बोला की अगली बार उन पाँच में से दो तो नही आयेंगे और बाकी तीन को हम दोनों मिल कर संभाल ही लेंगे। जब राम कुछ न समझा तो रहीम ने अपने नाखुनो की और इशारा किया जिसमे कुछ खून लगा हुआ था और राम और रहीम दोनों ही उसकी इस असभ्य हरकत पर हंस पड़े। ॥ कर्म्शः
अब अम्मी क्या समझे की रहीम शीर कोरमा छोड़ सकता है लेकिन राम के यहाँ खेलने जाना कतई नहीं। इधर राम के यहाँ भी कुछ ऐसा ही माहोल था। राम स्कूल से आते ही बसता फेक कर खेलने जाने की तैयारी कर रहा था। माँ जल्दी कुछ खाने को दे दे, रहीम आता ही होगा। हाँ, बड़ा लाटसाब है न तेरा रहीम। पता नही इसे उस लड़के में क्या दीखता है, इतने दोस्त है इसके ब्रह्मिण परिवार से, लेकिन इसका तो जी उस मुल्ले से ही मिलता है। बुदबुदाती हुई, राम की माँ उसके लिए रोटिया सेकने लगी।
दोनों पहली कक्षा से साथ पढ़ रहे थे लेकिन दोस्ती कोई चौथी कक्षा में हुई। राम अपनी स्कूल से घर लौट रहा था की कुछ लड़को ने रास्ते में रोक लिया। ये कोई आज की बात नही थी, आए दिन इसी तरह के लड़के राम को रोक कर परेशान किया करते थे। अब बित्ते भर का राम, गोरा चिट्टा और चुई मुई की तरह नाजुक, कोई जोर से चिल्ला दे तो मैदे जैसे गोरे गाल, लाल हो जाया करते थे। तो पूरे कसबे के आवारा लड़को के लिए वो एक निरीह लक्ष्य हुआ करता था जिसे मार कर वो ख़ुद का रॉब जमाया करते थे। राम उनसे लड़ना नही चाहता था पर उससे भी अहम् बात ये थी की राम लड़ना जानता ही नही था।
लेकिन उस दिन, उसी की कक्षा का एक हत्ता कट्टा लड़का, रहीम, दूर से ये तमाशा देख रहा था, उसका सहपाठी भी था लेकिन उसके सम्बन्ध राम से कुछ ख़ास मधुर नही थे। दोनों ही शिक्षको के पसंदीदा छात्रो में से एक थे। रहीम ने कभी हारना नही सिखा था लेकिन कक्षा में प्रथम स्थान को लेके राम और रहीम हमेशा टकराते रहते थे। रहीम पड़ने के साथ खेल कूद में तेज़ था तो राम भी पढ़ाई में अव्वल होने के साथ, अच्छा कलाकार था। कोई नाटक हो, भाषण हो या फ़िर कवितायेँ, राम सभी में पारंगत था। इसलिए इन दोनों का व्यक्तित्व घर्षण होना स्वाभाविक था। लेकिन आज जो रहीम की आखो के सामने हो रहा था वो उसके लिए इन सब व्यक्तिगत मुद्दों से ऊपर था। कहने को तो रहीम भी चौथी कक्षा का ही छात्र था लेकिन उसका डील डोल देख कर, सभी उसी आगे जाके पहेलवान बन्ने की नसीहत देते थे। वो राम को बचाने बीच में कूद पड़ा और उसके आते की नज़ारा बदल गया।
जो आवारा लड़के राम के बाल पकड़े उसे मट्टी में घसीट रहे थे, वो रहीम के आते ही अपनी सलामती की दुआ मांगे लगे। फ़िर भी किस्सी तरह वो पांचो हिम्मत करके रहीम पर टूट पड़े और उसे मारने लगे। रहीम ने काफ़ी देर तक संगर्ष किया लेकिन परिणाम उसके पक्ष में नही रहा। अब ये कोई फ़िल्म तो थी नही की वो अकेला उन पाँच पर भारी पड़ता। एक और चीज जो उन आवारा लड़को के पक्ष में थी और वो ये की ताकत और हिम्मत में भले ही रहीम उन पर भरी पड़ता लेकिन वो फ़िर भी एक इंसान था जिसमे इंसानियत कूट कूट कर भरी हुई थी जबकि इन आवारा लड़को को जानवर बनने के लिए सिर्फ़ एक पूँछ की जरूरत थी।
रहीम का ये हाल देख कर राम उसे अपनी साइकिल पर घर छोड़ने गया और रस्ते भर बस वो रोते जा रहा था। रहीम ने उसके कंधे पर हाथ रख के बोला की अगली बार उन पाँच में से दो तो नही आयेंगे और बाकी तीन को हम दोनों मिल कर संभाल ही लेंगे। जब राम कुछ न समझा तो रहीम ने अपने नाखुनो की और इशारा किया जिसमे कुछ खून लगा हुआ था और राम और रहीम दोनों ही उसकी इस असभ्य हरकत पर हंस पड़े। ॥ कर्म्शः
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