Thursday, 26 November 2009

पहली बरसी

आज सुबह उठने के बाद से ही मन कुछ विचलित सा था. कई दिनों से मीडिया २६ नवम्बर को लेकर कई लेख और कई अनुभव, प्रकाशित कर रहा है. आज पूरा एक साल हो गया उस मनहूस दिन को, जब हम से कोई साठ साल पहले बिचड़े भाइयो नए मुंबई में आकर कहर बरसाया था.
निहत्थो पर शस्त्र चलाने के लिए किसी शौर्य की आवश्यकता नहीं होती, उसके लिए तो ज़रुरत होती है कायरता और द्वेष से भरे हुए कलुषित मन की. मासूम बच्चो, लचर बुढो और उज्वल भविष्य का सपना लिए काम पर निकले हुए सेकड़ो युवाओ को इतनी बर्बरता से मारने वालो को तो नरक का दरोगा भी अपने यहाँ जगह न दे.
कुछ ही दिनों पहले पढ़ा की जिन ९ आतंकियों को पुलिस नए मार गिराया था, उन्हें अभी तक ज़मीन नसीब नहीं हुई है और उनके शव आज भी मुर्दाघर में पड़े है. भारतीय मुस्लिम संगठनो नए उन्हें अपनाने से इनकार कर उनके किये कार्य को अल्लाह और इस्लाम के खिलाफ बताया है.
खैर, शव को आग या मिटटी नसीब हो न हो, मानवता पर लगे इस ज़ख्म को आज एक साल पूरा हो गया और ये ज़ख्म आज भी उतना ही हरा है जितना पहले दिन था.

Sunday, 1 November 2009

खिड़की से बाहर

ये कविता मैं अपने छोटे से परिवार को समर्पित करता हूँ , आप सभी है तो ज़िन्दगी मैं  कोई कमी नहीं.


अपनी खिड़की से बाहर दुनिया हमेशा हसीं नज़र आती है.
घर की छोटी सी दुनिया और छोटी नज़र आती है.

अपनों के प्यार से ज्यादा गैरों के ताने ही मज़ा देते है.
ममता के रस में डूबे निवालों की जगह बेरुखे चेहरे चखने की सजा देते है.

बाप की चिंता, माँ की ममता, सब पीछे रह जाता है.
भाई का लड़ना, बहिन का चिड़ना, बस यादें ही बन जाता है.

कहने को व्यापर नहीं पर हम प्यार का सौदा करते है.
इस रंग बदलती दुनिया में हम साथ तराजू रखते है.

मौल भावः के चक्कर में, हम दाम लगाते जाते है,
खिड़की के बाहर के संसार में खोते जाते है.

खिड़की के अन्दर की दुनिया में कुछ विरले लोग ही रहते है,
मील के पत्थर के जैसे, वो स्थायी ही रहते है.

उनको जब भी याद करो , वो दौडे दौडे आते है,
आगा पीछा सब भूल के, बस बाहों में खो जाते है,