Monday, 19 April 2010

स्टेशन

वोही जगह, वोही वक़्त, वोही लोग, वोही जज़्बात लेकिन अलग हालात. ये स्टेशन भी एक अजीब जगह होती है, कोई अपनों के आने की ख़ुशी में बंदरो की तरह कूद रहा होता है है, तो कोई अधेढ़ उम्र का आदमी बच्चा बने रो रहा होता है. किसी की झोली में अनमोल खुशिया बिखेर देता है तो यहाँ किसी  का सब कुछ बिखर जाता है.

वैसे निष्पक्ष तरीके से देखा जाए तो ये स्टेशन फ़िज़ूल ही लोगो का कोपभाजन बनता है. आदमी सब कुछ पहले से तय कर लेता है. कारण, वक़्त और फायदे नुक्सान भी तय कर लिए जाते है, लेकिन कोसा जाता है तो सिर्फ स्टेशन को. बहुत बेकार जगह है साहब, हमारा बस चले तो हम कभी ना जाए स्टेशन.  ऐसे कई जुमले इस अभागे स्टेशन को सुनने पड़ते है.

खैर जो भी हो, आदमी हमेशा एक कारण ढूँढता है, अपने दुःख, अपनी विवशता को किस्सी और के सर मढ़ के खुद को मुक्त करने की असफल कोशिश करता रहता है. लेकिन ये मन उसे हमेशा सच के दर्शन करवा ही देता है.
तभी तो लाख मना करने के बाद भी वो कभी अपनों को लेने और कभी अपनों को छोड़ने के लिए स्टेशन के किसी न किसी प्लेटफोर्म पर खड़ा दिख जाता है.
कही आँखों में लबालब भरे जज़्बात बस एक हलके से धक्के से बह निकलते है, तो किसी चेहरे पर अनावश्यक कठोरता अपने अन्दर की भावनाओ से लडती रहती है. कही हाथो से हाथ और गले से गले का मिलना तो कही बचे हुए चंद लम्हों में सारी बातें ख़तम करने की जी तोड़ कोशिश. कही माँ का दुलार, तो कही कभी न मिलने के लिए जुदा होने वाले रिश्तो का विलाप.
बड़ी ही दिलचस्प जगह है ये स्टेशन और कई किस्से कहानियो को अपने अन्दर समेटे हुए, सभी झिडकिया सहते हुए, कमोश है ये स्टेशन.