Wednesday, 29 September 2010

फैसले की घडी

जो सहना था वो सह चुके, जो खोना था वो खो चुके,
अब काहे का रोना है, अब तो फैसला होना है.

बहुत पुरानी बात है, हम भी भगवा लेकर दौड़े थे, खाकी की एक चड्डी और हाथ में डंडा लेकर बोले थे.
अब डंडे की जगह ठन्डे बस्ते में है, कल के मसीहा, आज सभी रस्ते में है.


पुश्तैनी सी एक इमारत जब ढेहना था तब डह गयी, जो कहना था सो कह गयी,
अब लकीरे हम क्यों पीटे,रस्सा तानी हम क्यों खिचे.

कई सवाल ऐसे भी थे जो मस्जिद के संग डह न सके, और भगवे की धरा के संग बह न सके.

वो सवाल हम आज भी चिढाते है,  भूके बच्चे जैसे बिलबिलाते है,
वो सवाल हमे कचोटते है, और हम बैठे ये सोचते है.

जो सहना था वो सह चुके, जो खोना था वो खो चुके,
अब काहे का रोना है, अब तो फैसला होना है.

Thursday, 23 September 2010

और पुल टूट गया

जैसे तैसे तो बना था, कई फाईलो का सहारा लेकर तना था.
अपने भाग्य पर इठला रहा था और अभी अभी बनने की ख़ुशी में इतरा रहा था.

बारिश का एक छीटा पुल को चिढ़ा गया, सौ टन के जंगले को हिला गया,
पुल ने अफसरों की नीयत को टटोला, फिर कापते शब्दों में बोला.

अपनी थाली में से मुझे भी कुछ तो खिलाते, सीमेंट न सही, कम से कम रेट तो अच्छी क्वालिटी की मिलाते,
दाढ़ी खुजाते अफसर बोले, हमसे कुछ बचता तो तुझे भी पिलाते.

खिसयाना सा होकर पुल ललकारा, अरे नासपीटो कुछ तो शर्म करते,
ज्यादा नहीं तो कम से कम एखाद साल का तो इन्तेजार करते.

देश की इज्जत लूट ली और दुनिया को जाता दिया,
अपनी कलुषित इच्छा की चलते, देश को नंगा करके बता दिया.

शान से तना हुआ पुल असमंजस में झूल गया,
और एक रात की बारिश में पुल का संबल टूट गया.

Tuesday, 7 September 2010

भ्रष्ट मंडल खेल

पढोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब, ये सुनते सुनते हमारी पीढ़ी के कान पक गए. हमारी पीढ़ी, चलिए दो शब्द इसके बारे मैं भी बोल लेते है. हमारी पीढ़ी मतलब आज़ादी के बाद की तीसरी पीढ़ी.  इस पीढ़ी के पूर्वजो ने हर चीज मैं कटौती झेली. कभी बच्चो के दूध की कटौती तो कभी राशन की कटौती, कभी पानी की आपूर्ति को लेकर बैचनी तो कभी बिजली को लेकर तनातनी. छोटी उम्र मैं बड़ी जिम्मेदारियां उठाये, घिसते तलवे लेकिन चमकती आँखें लिए एक खुशाल परिवार, एक समृद्ध देश का सपना सजाया था पूर्वजो ने.
इस सपने को सहेजना हमारी पीढ़ी के लिए काफी जरूरी था. पूर्वजो की मेहनत को ऐसे ही कैसे जाया कर सकते है. इसी उधेड़ बून में कब बचपन निकला और कब जवानी को अलविदा कहते हुए अदेध अवस्था में प्रवेश कर गए पता ही नहीं चला. हमारे पूर्वजो ने हमे कटौतियो से कोसो दूर रकते की कोशिश की.
बिजली की कटौती से लड़ने को इन्वेर्टर लगा दिए गए, पानी की कमी से भिड़ने को तानकर मंगवा लिए गए. दूध, दही और घी की नदिया बहा दी गयी. इन्ही नदियों में कभी माँ की साडी, कभी बाप की घडी, कभी दादाजी का चश्मा स्वाहा हो गया, मगर मजाल है की किसी ने उफ़ तक की हो या किसी माथे पर शिकन तक दिखी हो, दिखा तो सिर्फ सुकून.एक सुकून जो न पैसे से ख़रीदा जा सकता है और ना ही किसी राशन की दुकान पर मिलता है. 
बलिदान खाली नहीं गए, रंग लाये, देश को कई क्षेत्रो में अव्वल बनाया. कही बम बनाये जा रहे थे तो कही रोककेट, कही कृषि के क्षेत्र में क्रान्ति आ रही थी तो कही शिक्षा लोगो को आत्मनिर्भर बना रही थी. धरती का सीना चीर कर सोना लहरा रहा था, अनाज के लिए अब हम औरो का मुंह नहीं ताकते थे. विज्ञान ने प्रगति की रफ़्तार कई गुना बढ़ा दी.
कुछ लोग नया नज़रिया लेकर आये, भारत को विश्व पटल पर स्थायी दर्जा और सम्मान मिले इसके लिए भरसक प्रयत्न चालू हुए. कई शिक्षाविद और विदुषी लोगो ने यथा संभव प्रयत्न किये, राष्ट्रमंडल खेलो को भारत में सफल आयोजित करने की चेष्टा  जाहिर की गयी. कईयों की आँखें खुली, तो कईयों की खुली ही रही गयी. बड़े बड़े वादे हुए, कुछ पूरे हुए और कुछ के पूरे होने की आस में कईयों की सांस अटक गयी.
पूर्वजो की तपस्या को भंग करने में मंत्री नामक अपसरा ने तनिक भी संकोच नहीं किया. स्वयं को राष्ट्र का प्रतिनिधि बताने वाले भी भष्टाचार रुपी नन्गता को बर्दाश्त कर गए. कभी देश के मान का प्रतिक रही पगड़ी को भी इन लोगो ने ठोकर मारकर उछाल दिया.
मेरी दरख्वास्त है माननीय प्रधानमंत्रीजी से की की देश की गरिमा के साथ हो रहे इस खिलवाड़ को रोका जाए. इस महान देश के स्वाभिमानी पूर्वजो एवं कर्ताव्य्निष्ट नागरिको के सम्मान को आहत न होने दिया जाये. इसी स्वाभिमान एवं सम्मान के लिए हमने न जाने कितनी आहुतिय दे दी और ना जाने कितने मुश्किल वक़्त एकजुट हो कर झेल गए.