Monday, 29 August 2011

हौंसला

में उस वक़्त जरा दफ्तर की जल्दी में था,
में अपनी गाडी में अकेला और वो कारवा में था.

ये चंद पंक्तिया, उस देशभक्त इंसान के लिए जिसका नाम तो में नहीं जानता लेकिन जो मेरी गाडी के बगल से अपनी व्हील च्हयेर पर फर्राटे से चला जा रहा था, अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का हिस्सा बनकर एक अमिट इतिहास लिखने..... उसका रास्ता न बारिश रोक सकी और ना ही शारीरिक दुर्र्बलता.

सदियों से सुन रहा था वो एक दबी सी आह, 
सिसकियो में उसकी छुपी थी जीने की चाह.

उसका नसीब था बस उसके ही हाथ,
वो पैदा हुआ था कुछ अंग और दो पहियों के साथ.

ये पहिये ही थे जो रहते थे हमेशा उसके संग,
इनके ही सहारे लड़नी थी उसको जीवन की जंग.

जंग जीतना उसका मकसद शायद ही रहा होगा,
दुश्मन से न भिड़ना उसको कही खला होगा,

वैराग्य ने उसके मन को भी कभी घेरा होगा,
उसके घर में भी कभी शाम का डेरा होगा,

कई ख्वाब उसने तह करके तिजोरी में रखे होंगे,
शायद कभी धुप में सुखाने की उम्मीद से रखे होंगे,

उस दिन शायद उसने अपना सूर्य खोज लिया था,
इसलिए अपने पहियों के साथ जोश में था.

उसके हाथ अनवरत पहियों में चले जा रहे थे,
और वहा दिल्ली में बड़े बड़े सिंहासन हिले जा रहे थे.