Wednesday 29 December 2010

वो खिलौने की दूकान

बात ज्यादा पुरानी नहीं है पर ध्यान में आज  आयी. जब सोचने बैठा तो न दुख हुआ और न ही सुख का एहसास हुआ. कई बार हमारा जीवन हमे कैसे कैसे रस्तो से लेकर गुजरता है बस इसी बात पर थोड़ी हैरत हुई.
हुआ यु की हमारे शहर में एक खिलौने की दूकान हुआ करती थी, मेरी उम्र कोई चार या पांच वर्ष रही होगी, तभी से उस दूकान और उसमे रखे तरह तरह खिलौनों को में कोतुहल की दृष्टि से देखा करता था. कभी कभी विशेष अवसर मेरे बाबा मुझे दूकान से महंगे खिलौने लाकर भी देते थे लेकिन स्त्री हठ की तरह ही बाल हठ की पूर्ती करना भी असंभव कार्य है. तो में उस दूकान से कभी ख़ुशी कुशी नहीं लौटा, मेरी टोकरी में एक खिलौना हमेशा कम ही लगता था मुझे. खैर, मेरे बाबा ने यथा संभव प्रयत्न किये मेरे नासमझ मन को समझाने के.
मेरे बाल मन पर उस खिलौने की दूकान ने एक विशेष स्थान बना लिया था, कई साल गुज़र गए और में अपने सभी दोस्तों की तरह जीवन की भागादौड़ी में व्यस्त हो गया, कभी वक़्त ही नहीं मिला उस दूकान की तरफ मुद के देखने का.
लेकिन कई बरस के बाद, जब उस रोज़ मुझे अपने भांजे के लिए एक खिलौना खरीदने की सूझी तो मेने उसी दुकान की और देखा, लेकिन ये दूकान मेरे बचपन वाली दूकान से काफी अलग थी, जिन खिलौनों को देखकर मेरी आँखों में एक चमक आ जाती थी, आज वही आँखें उन खिलौनों में ना चाहते हुए भी कमिय ढूँढ रही थी. अपने बचपन की यादो में ख़ास स्थान रखने वाली इस दूकान को थोडा सा सम्मान देने की मेरी हर कोशिश नाकाम होती जा रही थी और आखिर में हार ही गया और जिस दूकान से में हमेशा और पाने की छह में निकला करता था, आज खाली हाथ निकल आया, किसी और बेहतर दूकान की तलाश में, शायद किसी और बेहतर शहर के लिए में आगे निकल आया.