Wednesday 29 December 2010

वो खिलौने की दूकान

बात ज्यादा पुरानी नहीं है पर ध्यान में आज  आयी. जब सोचने बैठा तो न दुख हुआ और न ही सुख का एहसास हुआ. कई बार हमारा जीवन हमे कैसे कैसे रस्तो से लेकर गुजरता है बस इसी बात पर थोड़ी हैरत हुई.
हुआ यु की हमारे शहर में एक खिलौने की दूकान हुआ करती थी, मेरी उम्र कोई चार या पांच वर्ष रही होगी, तभी से उस दूकान और उसमे रखे तरह तरह खिलौनों को में कोतुहल की दृष्टि से देखा करता था. कभी कभी विशेष अवसर मेरे बाबा मुझे दूकान से महंगे खिलौने लाकर भी देते थे लेकिन स्त्री हठ की तरह ही बाल हठ की पूर्ती करना भी असंभव कार्य है. तो में उस दूकान से कभी ख़ुशी कुशी नहीं लौटा, मेरी टोकरी में एक खिलौना हमेशा कम ही लगता था मुझे. खैर, मेरे बाबा ने यथा संभव प्रयत्न किये मेरे नासमझ मन को समझाने के.
मेरे बाल मन पर उस खिलौने की दूकान ने एक विशेष स्थान बना लिया था, कई साल गुज़र गए और में अपने सभी दोस्तों की तरह जीवन की भागादौड़ी में व्यस्त हो गया, कभी वक़्त ही नहीं मिला उस दूकान की तरफ मुद के देखने का.
लेकिन कई बरस के बाद, जब उस रोज़ मुझे अपने भांजे के लिए एक खिलौना खरीदने की सूझी तो मेने उसी दुकान की और देखा, लेकिन ये दूकान मेरे बचपन वाली दूकान से काफी अलग थी, जिन खिलौनों को देखकर मेरी आँखों में एक चमक आ जाती थी, आज वही आँखें उन खिलौनों में ना चाहते हुए भी कमिय ढूँढ रही थी. अपने बचपन की यादो में ख़ास स्थान रखने वाली इस दूकान को थोडा सा सम्मान देने की मेरी हर कोशिश नाकाम होती जा रही थी और आखिर में हार ही गया और जिस दूकान से में हमेशा और पाने की छह में निकला करता था, आज खाली हाथ निकल आया, किसी और बेहतर दूकान की तलाश में, शायद किसी और बेहतर शहर के लिए में आगे निकल आया.

Tuesday 23 November 2010

प्रजातंत्र

सुबह उठते ही दैनिक समाचारों से रूबरू होने की आदत सभी को होती है. कुछ लोग इसके लिए अख़बार की बाट जोहते है तो कुछ न्यूज़ चेनल्स पर भरोसा करते है. आज का दिन और दिनों से कुछ अलग था क्यूंकि आज बिहार विधानसभा के चुनावो के नतीजे आने वाले थे.
जैसा की अनुमानित था, नितीश कुमार एवं भाजपा गठबंधन ने सत्ता काबिज कर ली. हालाकि ये कोई चौकाने वाली बात नहीं थी. चुनाव में किसी की हार एवं किस्सी की जीत होती ही है, कुछ दिग्भ्रमित लोग त्रिशंकु सभा के पक्ष में भी रहते है.
लेकिन आज की बात विशेष बनाने में एक १० से १२ वर्षीय बालक का योगदान रहा. हुआ यु की घर में रद्दी जमा हो चुकी थी एवं हमसे लाख गुहार लगाने के बाद भी जब हम एक रद्दी वाले को नहीं ढूँढ पाए तब हमारी धर्मपत्नी ही एक रद्दी वाले का पता निकाल लायी. सुबह के करीब ९ बजे थे, बिहार में हुए घमासान को सभी न्यूज़ चेनल्स चटखारे ले ले कर परोस रहे थे और यहाँ ये गरीब, इन सब बातो से बेखबर हो, रद्दी तौल रहा था. हमे उसके बोलचाल से अंदाजा हो ही चूका था लेकिन फिर भी पूछ बैठे, क्यों भई बिहार से हो क्या? वो हाँ बोल कर हमारी आँखों में अपनापन ढूँढने की कोशिश सी करने लगा. हमने उसे टीवी पर चल रहे प्रोग्राम की और इंगित करते हुए कहा, ये पता है क्या चल रहा है, उसने इस प्रश्न की अपेक्षा हमसे नहीं की थी लेकिन फिर भी थोड़ी देर टीवी पर देखने के बाद अपनी मुंडी हिला कर साफ़ इंकार कर दिया और बोला, नाही भैया, हमे नाही पता जे क्या है.
अपनी आज की रोटी, आज का खाना और आज का आशियाना जैसे महतवपूर्ण सवालों में उलझे हुए उस बालक के समक्ष देश से जुडी ये अहम् खबरें भी बौनी नज़र आई, हमने एक गैर जिम्मेदार नागरिक की तरह ठंडी सांस भरी और उसे उसका हिसाब किताब कर रवाना किया.
विश्व के सबसे बड़े प्रजातंत्र में बच्चो की शिक्षा एवं उनके भविष्य जैसे मुद्दों की ऐसी अवहेलना पर हम एक बार फिर असहाय नज़र आये.

सिद्धार्थ

Wednesday 29 September 2010

फैसले की घडी

जो सहना था वो सह चुके, जो खोना था वो खो चुके,
अब काहे का रोना है, अब तो फैसला होना है.

बहुत पुरानी बात है, हम भी भगवा लेकर दौड़े थे, खाकी की एक चड्डी और हाथ में डंडा लेकर बोले थे.
अब डंडे की जगह ठन्डे बस्ते में है, कल के मसीहा, आज सभी रस्ते में है.


पुश्तैनी सी एक इमारत जब ढेहना था तब डह गयी, जो कहना था सो कह गयी,
अब लकीरे हम क्यों पीटे,रस्सा तानी हम क्यों खिचे.

कई सवाल ऐसे भी थे जो मस्जिद के संग डह न सके, और भगवे की धरा के संग बह न सके.

वो सवाल हम आज भी चिढाते है,  भूके बच्चे जैसे बिलबिलाते है,
वो सवाल हमे कचोटते है, और हम बैठे ये सोचते है.

जो सहना था वो सह चुके, जो खोना था वो खो चुके,
अब काहे का रोना है, अब तो फैसला होना है.

Thursday 23 September 2010

और पुल टूट गया

जैसे तैसे तो बना था, कई फाईलो का सहारा लेकर तना था.
अपने भाग्य पर इठला रहा था और अभी अभी बनने की ख़ुशी में इतरा रहा था.

बारिश का एक छीटा पुल को चिढ़ा गया, सौ टन के जंगले को हिला गया,
पुल ने अफसरों की नीयत को टटोला, फिर कापते शब्दों में बोला.

अपनी थाली में से मुझे भी कुछ तो खिलाते, सीमेंट न सही, कम से कम रेट तो अच्छी क्वालिटी की मिलाते,
दाढ़ी खुजाते अफसर बोले, हमसे कुछ बचता तो तुझे भी पिलाते.

खिसयाना सा होकर पुल ललकारा, अरे नासपीटो कुछ तो शर्म करते,
ज्यादा नहीं तो कम से कम एखाद साल का तो इन्तेजार करते.

देश की इज्जत लूट ली और दुनिया को जाता दिया,
अपनी कलुषित इच्छा की चलते, देश को नंगा करके बता दिया.

शान से तना हुआ पुल असमंजस में झूल गया,
और एक रात की बारिश में पुल का संबल टूट गया.

Tuesday 7 September 2010

भ्रष्ट मंडल खेल

पढोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब, ये सुनते सुनते हमारी पीढ़ी के कान पक गए. हमारी पीढ़ी, चलिए दो शब्द इसके बारे मैं भी बोल लेते है. हमारी पीढ़ी मतलब आज़ादी के बाद की तीसरी पीढ़ी.  इस पीढ़ी के पूर्वजो ने हर चीज मैं कटौती झेली. कभी बच्चो के दूध की कटौती तो कभी राशन की कटौती, कभी पानी की आपूर्ति को लेकर बैचनी तो कभी बिजली को लेकर तनातनी. छोटी उम्र मैं बड़ी जिम्मेदारियां उठाये, घिसते तलवे लेकिन चमकती आँखें लिए एक खुशाल परिवार, एक समृद्ध देश का सपना सजाया था पूर्वजो ने.
इस सपने को सहेजना हमारी पीढ़ी के लिए काफी जरूरी था. पूर्वजो की मेहनत को ऐसे ही कैसे जाया कर सकते है. इसी उधेड़ बून में कब बचपन निकला और कब जवानी को अलविदा कहते हुए अदेध अवस्था में प्रवेश कर गए पता ही नहीं चला. हमारे पूर्वजो ने हमे कटौतियो से कोसो दूर रकते की कोशिश की.
बिजली की कटौती से लड़ने को इन्वेर्टर लगा दिए गए, पानी की कमी से भिड़ने को तानकर मंगवा लिए गए. दूध, दही और घी की नदिया बहा दी गयी. इन्ही नदियों में कभी माँ की साडी, कभी बाप की घडी, कभी दादाजी का चश्मा स्वाहा हो गया, मगर मजाल है की किसी ने उफ़ तक की हो या किसी माथे पर शिकन तक दिखी हो, दिखा तो सिर्फ सुकून.एक सुकून जो न पैसे से ख़रीदा जा सकता है और ना ही किसी राशन की दुकान पर मिलता है. 
बलिदान खाली नहीं गए, रंग लाये, देश को कई क्षेत्रो में अव्वल बनाया. कही बम बनाये जा रहे थे तो कही रोककेट, कही कृषि के क्षेत्र में क्रान्ति आ रही थी तो कही शिक्षा लोगो को आत्मनिर्भर बना रही थी. धरती का सीना चीर कर सोना लहरा रहा था, अनाज के लिए अब हम औरो का मुंह नहीं ताकते थे. विज्ञान ने प्रगति की रफ़्तार कई गुना बढ़ा दी.
कुछ लोग नया नज़रिया लेकर आये, भारत को विश्व पटल पर स्थायी दर्जा और सम्मान मिले इसके लिए भरसक प्रयत्न चालू हुए. कई शिक्षाविद और विदुषी लोगो ने यथा संभव प्रयत्न किये, राष्ट्रमंडल खेलो को भारत में सफल आयोजित करने की चेष्टा  जाहिर की गयी. कईयों की आँखें खुली, तो कईयों की खुली ही रही गयी. बड़े बड़े वादे हुए, कुछ पूरे हुए और कुछ के पूरे होने की आस में कईयों की सांस अटक गयी.
पूर्वजो की तपस्या को भंग करने में मंत्री नामक अपसरा ने तनिक भी संकोच नहीं किया. स्वयं को राष्ट्र का प्रतिनिधि बताने वाले भी भष्टाचार रुपी नन्गता को बर्दाश्त कर गए. कभी देश के मान का प्रतिक रही पगड़ी को भी इन लोगो ने ठोकर मारकर उछाल दिया.
मेरी दरख्वास्त है माननीय प्रधानमंत्रीजी से की की देश की गरिमा के साथ हो रहे इस खिलवाड़ को रोका जाए. इस महान देश के स्वाभिमानी पूर्वजो एवं कर्ताव्य्निष्ट नागरिको के सम्मान को आहत न होने दिया जाये. इसी स्वाभिमान एवं सम्मान के लिए हमने न जाने कितनी आहुतिय दे दी और ना जाने कितने मुश्किल वक़्त एकजुट हो कर झेल गए.

Wednesday 11 August 2010

पीपल चाचा

बूढा पीपल कुछ और बूढा हो चला था. जिसकी छाव के तले गर्मी की छुट्टिय बीता करती थी, जिसके पत्ते आँगन मैं कचरा फैला कर रोज अम्मा की डांट खाया करते थे और फिर किसी शरारती बच्चे की तरह अपनी गलती से अनजान हो जाया करते थे, वही पीपल अब कई आँखों मैं खटकता था.

मुह्हल्ले के कई बच्चे जो बचपने मैं पीपल को पीपल ताऊ , पीपल चाचा और पीपल मामा कह के बुलाते थे, वो सभी अब बड़े हो चुके थे. और उनकी मह्त्व्कंशाओ के आगे पीपल भी बोना नज़र आ रहा था.

विचारो की धार पीपल पर आरी की तरह चल रही थी, कई पक्षी विचलित प्रतीत हो रहे थे, कई जानवरों ने भी इसे एक दंडनीय अपराध करार दिया था, नहीं विचलित था तो आदमी का मन जो पीपल को अपनी तररकी मैं बाधा मान चूका था.  कभी सभी की आँखों का तारा रहा पीपल अब उन्ही आँखों मैं खटक रहा था. पीपल के उप्पर एक शौपिंग माल नामक काल मंडरा रहा था.

इतनी झिड़कियो एवं तानो को झेलते हुए एक दिन पीपल ने अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर ली. कल रात की मुसलाधार बारिश मैं कई टीन तप्परो के साथ साथ पीपल भी गिर पड़ा. ना किसी आरी की जर्रोरत पड़ी और ना कुल्हाड़ी की. जो काम दशको की गर्मी, सर्दी और बारिश न कर सकी, वो अपनों के तानो एवं चुभती हुई निगाहों ने कर दिया. अपने बच्चो के सपनो के लिए पीपल चाचा ने अपना जाना ही ठीक समझा.

आपका अपना
सिद्धार्थ

Thursday 29 July 2010

जाने वाले

कहने को तो है सब अपने, पर कोई अपना साथ नहीं,मुश्किलों के इन लम्हों में , हाथो में कोई हाथ नहीं.


चिर निंद्रा में लीन हुए अब तो हमको सोने दो,
सदियों के है नाते टूटे, कुछ पल तो हमको रोने दो.

कल सब अपने रस्ते होंगे, नए जगत में हस्ते होंगे,
इस शण , इस पल में,  तनहा हमको होने दो.

वक़्त का मरहम धीरे धीरे अपना काम तो करता है,
जख्मो के गड्डो को वो काफी धीरे भरता है.


सिर्फ जख्मो की क्या बात करे, यहाँ बातो से दिल जलता है,
रोने का दिल चाहे भी तो कन्धा कहाँ मिलता है.

Thursday 22 July 2010

ऊपर उठने की मुसीबत

सोचा आज सुबह सुबह कुछ लिखा जाए, कुछ सुझा नहीं तो कल रात को लापतागंज की कहानी का शीर्षक ही मन को भा गया, "ऊपर उठने की मुसीबत". ऊपर उठने से लेखक का तात्पर्य स्वर्ग सिधारना नहीं था अपितु अपने समकक्ष लोगो की नजरो में ऊपर उठने से आम आदमी के जीवन में जो समस्याएं होती है , शरद जोशी जी ने उनका बखूबी वर्णन किया है.
जैसे भारतीय रेल में कभी अकेलापन नहीं लगता, वैसे ही भारतीय विमानों में कुछ भी भारतीय नहीं लगता. लोग एकाएक सभ्य एवं अंग्रेजी भाषी बन जाते है. किसी का पाँव किस्सी से टकरा गया तो सभ्यता की पराकाष्ठ ही हो जाती है लेकिन रेल में दूसरो के पाँव को ज्यादा भाव नहीं दिया जाता और उन्हें कुचलना एक अलिखित नियम माना जाता है.
ऊपर उठ कर आदमी अकेला महसूस करता है क्युकि उसके साथ वाले तो वही नीचे खड़े रह जाते है. कुछ नीचे खड़े होकर ऊपर उठने वाले की सराहना करते है तो कुछ ख्वामखा ही मुह बिगाड़ कर बैठ जाते है.
ऐसे में उप्पर उठने वाले को उंचाई से कुछ दीखता तो है नहीं और वो अपनी ही तन्द्रा में रहता है, जिसे अभिमान समझ लिया जाता है. वाकई देखा जाए तो ये अभिमान ना होकर, उंचाई पर मिले अपने नए साथियो से तारतम्य बिठानी की एक कोशिश हो तो होती है.
शरद जोशी जी की कहानियो से काफी कुछ सीखने को मिलता है और एक धारावाहिक के जरिये कहानी के सार को समझना काफी सरल है.

आपका अपना
सिद्धार्थ

Sunday 4 July 2010

किस्सा ऑफिस का

एक दफा हमे सरकारी दफ्तर के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, अचरज की है बात पर ये चमत्कार हुआ.
बचपन से किस्से, कहानियो, व्यंगो और उपहासो में पाए जाने वाले प्राणी, यानी हमारे सरकारी कर्मचारी,
साक्षात् हमारे खड़े थे, कुछ सोये, कुछ लेटे और कुछ तो औंधे ही पड़े थे.


हमने व्याकुलता के साथ मेज थपथपाई, जिम्मेदार नागरिक होने की पहली ओपचारिकता निभायी,
बाबु ने आँखें खोल के उप्पर से नीचे तक टटोला और सामने पड़े ऐतिहासिक दस्तावेजो को एक और धकेला.


बिना शिष्टाचार को बीच में लाये, वो सीधे मुद्दे की बात पर आये, बोले क्या काम करवाना है,
हमने कहा जी शादी का प्रमाण पत्र बनवाना है. वो बोले बस, यहाँ तो देखो घर भी बनवाना है.


आप लोगो का सहयोग रहा तो वो भी बन जाएगा, और देखते ही देखते पेट्रोल पम्प भी तन जाएगा.
छोटी कुर्सी पर इतनी बड़ी महत्वकंशाओ का बोझ देख, हमने अपना बटुआ टटोला.


बटुए में पड़े आखरी नोट पर बने गाँधीजी घबराए, ऐसे राष्ट्र का पिता होने पर थोडा शर्माए.
बापू से प्रेरित हो, हमने बाबु को असहयोग की धमकी दे डाली.
बिना विचलित हुए बाबु ने हमारी फाइल हमे मुह पर दे मारी.

बाबु बोला बापू के सिद्धांतो को तो भ्रष्टाचार कब का लील गया,
तुम तो एक जगह ही अटके हो, अशोक चक्र से सीखो और निरंतर चलते रहो.

हमने बापू से क्षमा मांगी और बाबु से दोस्ती बढाई,
कुछ सेवा हमने की तो उसने फाइल आगे खिसकाई,

हमारे अपराध बोध से ग्रसित मन को हमे समझाया,
जमाना बापू का नहीं बाबु का है, इस बात से उसे अवगत कराया,

आपका अपना घसीटाराम,
सिद्धार्थ

शौपिंग माल

अभी कल की ही बात है, हमने अपने घर के पास बने माल में शौपिंग करने की गुस्ताखी कर डाली,
हमारी इस अस्वाभाविक हरकत से प्रस्सन हो,  हमारी धर्मपत्नी ने हमे शाबासी दे डाली.

माल पहुच कर हमने बटुआ टटोला तो वो भी ठंडी आहे भरता हुआ बोला,
हमेशा मुझे ही दोष देते हो, कभी लेडिस  पर्स की तरह मुझे भी भरो,
और वो भी न बन सके तो चलो वापिस घर ही चलो.

हमने बटुए से कहा औकात याद रहे, और जैसे हम सह रहे है लेडिस के नखरे सहे,
अनमना सा मुह लिए बटुआ अब चुप ही रहा और पूरे समय हमसे खफा ही रहा,

हम वहा अकेले नहीं थे,  शौपिंग बैगस लिए हमारी प्रजाति के कई और भी थे,
सभी अपने तरीके से समय व्यतीत कर रहे थे, कुछ फ़ोन पर तो कुछ लड़ने झगड़ने में व्यस्त थे.

पुरुष को नारी के पीछे चलते देख हमे नारी के उथान का सुकून भी था,
और मन में पत्नी के साथ समय बिताने का निर्मल आनंद भी था.

कुछ समय बाद पत्नी अपनी चिंता छोड़ हमारी तरफ हो ली,
और हमारे ड्रेससिंग सेंस पर एक चिंता भरी आवाज़ के साथ बोली.
हम तो हमेशा ही खरीदते है , आज आप भी कुछ लीजिये,
शर्ट तो रोज ही पहनते है, आज टी-शर्ट भी लीजिये.

अपने प्रति इसी चिंता के हम कायल है, और जनाब व्यंग को मारिये गोली,
हम तो अपनी पत्नी के प्यार में घायल है.

मूर्खता का नाच

आमिर हो या गरीब, मंत्री हो या संत्री, सभी सनसनी फ़ैलाने में जुटे हुए है. अवसर चाहे तीज त्यौहार का हो या जनम मरण का, सभी का एकमेव उद्देश्य है अपनी प्रचिती से अपने ही जैसे मूर्खो पर धाक जमाना और अपने ही जैसे महामूर्खो से भरे इस समाज में एक महामूर्ख का दर्जा पाना.
एक ढूँढने बैठेंगे तो एक सेकड़ा मिल जायेंगे जो अपना धन , मन और जरूरत पड़ने पर तन लगा कर प्रस्सिधि पाने में जुटे हुए है. किस्सी का बचपन झींगा मछली न खाते हुए बड़ा ही कष्टमय गुजरा तो किस्सी ने अपनी पत्नी की कामयाबी के दीयों से अपने ही घर में आग लगा ली.
वैज्ञानिक भी मनुष्यों के इस अकस्मात् चरित्र पतन से भोचक्के है की मनुष्य की स्वभिनाम नामक ग्रंथि, जो उसे ऐसे चरित्र पतन से बचाती थी, एकाएक गायब कहा हो गयी.
कही किसी के स्वयंबर रचे जा रहे है तो कही कुछ अपना चीर हरण करवाने को बेताब है, कही कोई ऊपर उठने के लिए नीचे गिर रहा है तो कही हम जैसे घसीटाराम अपनी लेखनी को घिसे जा रहे है. भई, मानिये या न मानिये, ये सभी सनसनी फ़ैलाने और प्रसिद्धि पाने के हत्कंडे ही तो है.
भला हो कुछ बुद्धिजीवियों और मेहनतकश लोगो का जो आज भी सफलता के लिए लम्बा रास्ता तय करने से नहीं कतराते. यकीं नहीं आता तो स्वयंवर बाला की तुलना स्वर कोकिला से करके देख लीजिये, या फिर अधपके और बेमौसम टपके क्रिकेट विशेषज्ञों की तुलना सचिन तेंदुलकर से करके देख लीजिये. हमारे कहने और आपके सुनने के लिए कुछ बाकी नहीं रह जाएगा.

आपका अपना घसीटाराम
सिद्धार्थ

Wednesday 19 May 2010

सुबह

सुबह सुबह, आदमी प्रस्सन्न रहने की कोशिश में रहता है. सोचता है दिन भर को झेलने के लिए सुबह की एक कप चाय, बीवी के साथ प्यार के दो बोल, उसकी दिल को खिला देने वाली एक मुस्कराहट और ताज़ी ताज़ी खबरों से लदा हुआ अखबार, दिन को खुशुनुमा बनाये रखने का रामबाण नुस्का है . तो १२० करोड़ लोगो की सुबह कुछ इस तरह ही शुरू होगी. अब आप ललचा रहे होंगे हमारी गलती निकालने के लिए की १२० करोड़ तो पूरी जनसँख्या है, इसमें औरत, बच्चे और बुजुर्ग भी तो शामिल होंगे. तो साहब, जब इस देश में शेरो के अलावा किसी और को परिवार नियोजन की नहीं पड़ी, तो फिर हम क्यों एक सही संख्या को जानने परेशानी मोल ले.


तो एक आम आदमी, सुबह के उन तेजी से फिसलते हुए लम्हों को पकड़ने की पुरजोर कोशिश करता है. कभी नहाने में देरी करना, तो कभी न्यूज़ सुनने की ललक, ये सब, घर के सुरक्षित माहोल से बाहर के जंगल की और जाने से बचने की कोशिश नहीं तो और क्या है.

उसे पता होता है की एक बार बाहर कदम पड़े तो उसे किसी चीज़ का ध्यान नहीं रहेगा और रहा भी तो लोग उसे ज्यादा देर विचार मुद्रा में रहने नहीं देंगे.

चाहे कितनी ही मुश्किल में हो, चाहे कितनी ही विकत और जटिल समस्याएं अपना ताड़का रुपी मूह फैलाये कड़ी हो, ये सुबह के कुछ पल, इस आम आदमी को कुछ सुकून के पल प्रदान करते है, उसे उर्जा देते है तमाम परेशानियों से जूझने की और उन पर विजय प्राप्त करने की.

सुबह सुबह यही सदविचार न जाने कितने ही लोगो के मन में घर कर जाता है की ज़िन्दगी इतनी बुरी भी नहीं की इसे आधा छोड़ दिया जाए और इतनी मजबूर भी नहीं की इसे पैमानों में तौल दिया जाए.

Monday 19 April 2010

स्टेशन

वोही जगह, वोही वक़्त, वोही लोग, वोही जज़्बात लेकिन अलग हालात. ये स्टेशन भी एक अजीब जगह होती है, कोई अपनों के आने की ख़ुशी में बंदरो की तरह कूद रहा होता है है, तो कोई अधेढ़ उम्र का आदमी बच्चा बने रो रहा होता है. किसी की झोली में अनमोल खुशिया बिखेर देता है तो यहाँ किसी  का सब कुछ बिखर जाता है.

वैसे निष्पक्ष तरीके से देखा जाए तो ये स्टेशन फ़िज़ूल ही लोगो का कोपभाजन बनता है. आदमी सब कुछ पहले से तय कर लेता है. कारण, वक़्त और फायदे नुक्सान भी तय कर लिए जाते है, लेकिन कोसा जाता है तो सिर्फ स्टेशन को. बहुत बेकार जगह है साहब, हमारा बस चले तो हम कभी ना जाए स्टेशन.  ऐसे कई जुमले इस अभागे स्टेशन को सुनने पड़ते है.

खैर जो भी हो, आदमी हमेशा एक कारण ढूँढता है, अपने दुःख, अपनी विवशता को किस्सी और के सर मढ़ के खुद को मुक्त करने की असफल कोशिश करता रहता है. लेकिन ये मन उसे हमेशा सच के दर्शन करवा ही देता है.
तभी तो लाख मना करने के बाद भी वो कभी अपनों को लेने और कभी अपनों को छोड़ने के लिए स्टेशन के किसी न किसी प्लेटफोर्म पर खड़ा दिख जाता है.
कही आँखों में लबालब भरे जज़्बात बस एक हलके से धक्के से बह निकलते है, तो किसी चेहरे पर अनावश्यक कठोरता अपने अन्दर की भावनाओ से लडती रहती है. कही हाथो से हाथ और गले से गले का मिलना तो कही बचे हुए चंद लम्हों में सारी बातें ख़तम करने की जी तोड़ कोशिश. कही माँ का दुलार, तो कही कभी न मिलने के लिए जुदा होने वाले रिश्तो का विलाप.
बड़ी ही दिलचस्प जगह है ये स्टेशन और कई किस्से कहानियो को अपने अन्दर समेटे हुए, सभी झिडकिया सहते हुए, कमोश है ये स्टेशन.

Thursday 28 January 2010

बाँध का पत्थर


२० साल पहले:
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हमारे छोटे से गावं में आज बाँध के निर्माण का शिलान्यास होना हैं, पूरा गावं दुल्हन की तरह सजा हुआ है.
आप सोच रहे होंगे की इसमें इतना खुश क्यों  हुआ  जाए  शिलान्यास ही तो हो रहा है, बाँध बना तो नहीं.

अरे साहेब, ये शिलान्यास भी बड़ी चमत्कारी चीज़ है, सिर्फ इस शिलान्यास के चलते, हमारे गावं में सड़क  बन गयी, तम्बू तन गए और बच्चो के लिए स्कूल भले न खुले, कई शराब के ठेके जरुर खुल गए. नए नए  मंत्रीजी का पहला शिलान्यास है, तो पूरा परिवार उनके जीवन के इस अहम् मौके पर उनके साथ शिलान्यास करने के लिए हमारे गावं आने वाला है.


मंत्रीजी के रुकने की व्यवस्था के चलते कई लघु उद्योग निकल पड़े है, जैसे की मंत्रीजी के चमचो को लेकर   स्थानीय शराब विक्रेता बड़े ही उत्साहित है, सब्जी मंडी में सब्जियों के भाव आसमान छु रहे है, कई दिन हो गए बनिए ने दूकान नहीं खोली, अब to शायद तभी खुलेगी जब मंत्रीजी आयेंगे.. पूरे दो दिन का  कार्यक्रम बनाया है शिलान्यास का.

अब आपको उसमे भी आप्पत्ति होगी की एक कार्यकर्म के लिए २ दिन क्यों? तो ये भी सुन लीजिये, मंत्रीजी  ने आज तक कोई काम कच्चा नहीं किया है. जब पहला क़त्ल किया था तब भी जगह से हिले नहीं थे जब  तक तस्सल्ली नहीं हो गयी की वाकई उनका विरोधी परलोक सिधार चूका है, जब पहली बार चुनाव लड़ा  था तब बूथ काप्त्चुरिंग भी खुद की निगरानी में करवाई थी. तो  किसी भी काम में बारीक से बारीक चीजों को  भी गंभीरता से लेते है और ये तो उनका पहला शिलान्यास है, इसमें तो  किसी प्रकार का कोई जोखिम  मंत्रीजी ले  ही नहीं सकते. तो  मंत्रीजी ने भांति भांति के पत्थर मंगवा के रखे है और उन पर कई  नामचीन  शिल्पकारों ने मोतियों जैसे अक्षरों से मंत्रीजी का नाम लिखा है, इसके उपरान्त उद्घतान के लिए मंच और ५०० लोगो को मुफ्त भोज एवं कर्जदार किसानो का कर्ज भी माफ़ करने की घोषणा का मूड मंत्रीजी बना  ही  चुके  थे.

किसी ने मंत्रीजी को बीच में टोक कर कहा की इस गावं में तो कोई कर्जदार नहीं है, सभी ने समय के चलते  अपने अपने कर्ज का भुगतान किया है, इस पर मंत्रीजी चुटकी लेते हुए बोले, तो अभी भी वक़्त है, तुरंत जाके लोन बाटों, जिसे हम उन्हें माफ़ कर सके.

 आज:

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खैर, मालिक की कृपा से शिलान्यास हो  ही गया और ऐसी धूम धाम से हुआ साहब की अडोस पड़ोस के पच्चास गावो में हमारे गाव की शान बढ़ गयी.  आज उस शिलान्यास  समारोह को  करीब २० साल बीत  चुके है लेकिन वो पत्थर जो मंत्रीजी हमारे गावं को उपहार स्वरुप दे गए थे, वो आज भी वही खड़ा है. अब न मंत्रीजी रहे, न ही उस बांध को बनाने की योजना, लेकिन मंत्रीजी की दरियादिली के चलते, हमारे गावं को  कुछ हसीं पल और एक यादगार शाम ही नसीब हो  गयी.