Monday 18 March 2013

पुरुष से पशु तक का सफ़र

दिल्ली में जो हुआ या जो दिल्ली जैसे अन्य शहरों में होता आ रहा है, उस पर एक माँ के मन की व्यथा. पुरुषत्व से पशुत्व की और निरंतर अग्रसर है. ऐसे में एक मां क्या सोचती होगी की उसी के द्वारा तैयार किये गए पौधे, कब नरभक्षी बन गए।

मेने ही तो तेरा माथा सबसे पहले चूमा था ,बन
मेने ही तो इन हाथो से तुझको पलना झुला था।

मेरी ही तो ऊँगली थामे तूने चलना सीखा था,
चलते चलते  गिरना, फिर गिर कर उठना सीखा था।

मेने ही तो अपने तन से तेरा मन ये सींचा था,
गीली गीली तेरी मिटटी में प्यार का बरगद रोपा था।

मेने ही तो तेरी आँखों में मर्म का कजरा लीपा था,
तेरे भोले बचपन में एक ख्वाब सुनहरा देखा था।

मेने ही तो होली पर तुझपे रंग उड़ेले थे,
तेरी मासूम शरारत पर तेरे कान  उमेढ़े थे।

मेरी ममता बेकार हुई, और मेरा कलेजा बेज़ार हुआ,
जब तेरे अन्दर का भोला बच्चा, शैतान हुआ, खूंखार हुआ।

तूने मुझको जिल्लत दी और मेरा सपना व्यर्थ किया,
मेरी कोख से तुझको जनके मेने ये कैसा अनर्थ किया।