Thursday 29 July 2010

जाने वाले

कहने को तो है सब अपने, पर कोई अपना साथ नहीं,मुश्किलों के इन लम्हों में , हाथो में कोई हाथ नहीं.


चिर निंद्रा में लीन हुए अब तो हमको सोने दो,
सदियों के है नाते टूटे, कुछ पल तो हमको रोने दो.

कल सब अपने रस्ते होंगे, नए जगत में हस्ते होंगे,
इस शण , इस पल में,  तनहा हमको होने दो.

वक़्त का मरहम धीरे धीरे अपना काम तो करता है,
जख्मो के गड्डो को वो काफी धीरे भरता है.


सिर्फ जख्मो की क्या बात करे, यहाँ बातो से दिल जलता है,
रोने का दिल चाहे भी तो कन्धा कहाँ मिलता है.

Thursday 22 July 2010

ऊपर उठने की मुसीबत

सोचा आज सुबह सुबह कुछ लिखा जाए, कुछ सुझा नहीं तो कल रात को लापतागंज की कहानी का शीर्षक ही मन को भा गया, "ऊपर उठने की मुसीबत". ऊपर उठने से लेखक का तात्पर्य स्वर्ग सिधारना नहीं था अपितु अपने समकक्ष लोगो की नजरो में ऊपर उठने से आम आदमी के जीवन में जो समस्याएं होती है , शरद जोशी जी ने उनका बखूबी वर्णन किया है.
जैसे भारतीय रेल में कभी अकेलापन नहीं लगता, वैसे ही भारतीय विमानों में कुछ भी भारतीय नहीं लगता. लोग एकाएक सभ्य एवं अंग्रेजी भाषी बन जाते है. किसी का पाँव किस्सी से टकरा गया तो सभ्यता की पराकाष्ठ ही हो जाती है लेकिन रेल में दूसरो के पाँव को ज्यादा भाव नहीं दिया जाता और उन्हें कुचलना एक अलिखित नियम माना जाता है.
ऊपर उठ कर आदमी अकेला महसूस करता है क्युकि उसके साथ वाले तो वही नीचे खड़े रह जाते है. कुछ नीचे खड़े होकर ऊपर उठने वाले की सराहना करते है तो कुछ ख्वामखा ही मुह बिगाड़ कर बैठ जाते है.
ऐसे में उप्पर उठने वाले को उंचाई से कुछ दीखता तो है नहीं और वो अपनी ही तन्द्रा में रहता है, जिसे अभिमान समझ लिया जाता है. वाकई देखा जाए तो ये अभिमान ना होकर, उंचाई पर मिले अपने नए साथियो से तारतम्य बिठानी की एक कोशिश हो तो होती है.
शरद जोशी जी की कहानियो से काफी कुछ सीखने को मिलता है और एक धारावाहिक के जरिये कहानी के सार को समझना काफी सरल है.

आपका अपना
सिद्धार्थ

Sunday 4 July 2010

किस्सा ऑफिस का

एक दफा हमे सरकारी दफ्तर के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, अचरज की है बात पर ये चमत्कार हुआ.
बचपन से किस्से, कहानियो, व्यंगो और उपहासो में पाए जाने वाले प्राणी, यानी हमारे सरकारी कर्मचारी,
साक्षात् हमारे खड़े थे, कुछ सोये, कुछ लेटे और कुछ तो औंधे ही पड़े थे.


हमने व्याकुलता के साथ मेज थपथपाई, जिम्मेदार नागरिक होने की पहली ओपचारिकता निभायी,
बाबु ने आँखें खोल के उप्पर से नीचे तक टटोला और सामने पड़े ऐतिहासिक दस्तावेजो को एक और धकेला.


बिना शिष्टाचार को बीच में लाये, वो सीधे मुद्दे की बात पर आये, बोले क्या काम करवाना है,
हमने कहा जी शादी का प्रमाण पत्र बनवाना है. वो बोले बस, यहाँ तो देखो घर भी बनवाना है.


आप लोगो का सहयोग रहा तो वो भी बन जाएगा, और देखते ही देखते पेट्रोल पम्प भी तन जाएगा.
छोटी कुर्सी पर इतनी बड़ी महत्वकंशाओ का बोझ देख, हमने अपना बटुआ टटोला.


बटुए में पड़े आखरी नोट पर बने गाँधीजी घबराए, ऐसे राष्ट्र का पिता होने पर थोडा शर्माए.
बापू से प्रेरित हो, हमने बाबु को असहयोग की धमकी दे डाली.
बिना विचलित हुए बाबु ने हमारी फाइल हमे मुह पर दे मारी.

बाबु बोला बापू के सिद्धांतो को तो भ्रष्टाचार कब का लील गया,
तुम तो एक जगह ही अटके हो, अशोक चक्र से सीखो और निरंतर चलते रहो.

हमने बापू से क्षमा मांगी और बाबु से दोस्ती बढाई,
कुछ सेवा हमने की तो उसने फाइल आगे खिसकाई,

हमारे अपराध बोध से ग्रसित मन को हमे समझाया,
जमाना बापू का नहीं बाबु का है, इस बात से उसे अवगत कराया,

आपका अपना घसीटाराम,
सिद्धार्थ

शौपिंग माल

अभी कल की ही बात है, हमने अपने घर के पास बने माल में शौपिंग करने की गुस्ताखी कर डाली,
हमारी इस अस्वाभाविक हरकत से प्रस्सन हो,  हमारी धर्मपत्नी ने हमे शाबासी दे डाली.

माल पहुच कर हमने बटुआ टटोला तो वो भी ठंडी आहे भरता हुआ बोला,
हमेशा मुझे ही दोष देते हो, कभी लेडिस  पर्स की तरह मुझे भी भरो,
और वो भी न बन सके तो चलो वापिस घर ही चलो.

हमने बटुए से कहा औकात याद रहे, और जैसे हम सह रहे है लेडिस के नखरे सहे,
अनमना सा मुह लिए बटुआ अब चुप ही रहा और पूरे समय हमसे खफा ही रहा,

हम वहा अकेले नहीं थे,  शौपिंग बैगस लिए हमारी प्रजाति के कई और भी थे,
सभी अपने तरीके से समय व्यतीत कर रहे थे, कुछ फ़ोन पर तो कुछ लड़ने झगड़ने में व्यस्त थे.

पुरुष को नारी के पीछे चलते देख हमे नारी के उथान का सुकून भी था,
और मन में पत्नी के साथ समय बिताने का निर्मल आनंद भी था.

कुछ समय बाद पत्नी अपनी चिंता छोड़ हमारी तरफ हो ली,
और हमारे ड्रेससिंग सेंस पर एक चिंता भरी आवाज़ के साथ बोली.
हम तो हमेशा ही खरीदते है , आज आप भी कुछ लीजिये,
शर्ट तो रोज ही पहनते है, आज टी-शर्ट भी लीजिये.

अपने प्रति इसी चिंता के हम कायल है, और जनाब व्यंग को मारिये गोली,
हम तो अपनी पत्नी के प्यार में घायल है.

मूर्खता का नाच

आमिर हो या गरीब, मंत्री हो या संत्री, सभी सनसनी फ़ैलाने में जुटे हुए है. अवसर चाहे तीज त्यौहार का हो या जनम मरण का, सभी का एकमेव उद्देश्य है अपनी प्रचिती से अपने ही जैसे मूर्खो पर धाक जमाना और अपने ही जैसे महामूर्खो से भरे इस समाज में एक महामूर्ख का दर्जा पाना.
एक ढूँढने बैठेंगे तो एक सेकड़ा मिल जायेंगे जो अपना धन , मन और जरूरत पड़ने पर तन लगा कर प्रस्सिधि पाने में जुटे हुए है. किस्सी का बचपन झींगा मछली न खाते हुए बड़ा ही कष्टमय गुजरा तो किस्सी ने अपनी पत्नी की कामयाबी के दीयों से अपने ही घर में आग लगा ली.
वैज्ञानिक भी मनुष्यों के इस अकस्मात् चरित्र पतन से भोचक्के है की मनुष्य की स्वभिनाम नामक ग्रंथि, जो उसे ऐसे चरित्र पतन से बचाती थी, एकाएक गायब कहा हो गयी.
कही किसी के स्वयंबर रचे जा रहे है तो कही कुछ अपना चीर हरण करवाने को बेताब है, कही कोई ऊपर उठने के लिए नीचे गिर रहा है तो कही हम जैसे घसीटाराम अपनी लेखनी को घिसे जा रहे है. भई, मानिये या न मानिये, ये सभी सनसनी फ़ैलाने और प्रसिद्धि पाने के हत्कंडे ही तो है.
भला हो कुछ बुद्धिजीवियों और मेहनतकश लोगो का जो आज भी सफलता के लिए लम्बा रास्ता तय करने से नहीं कतराते. यकीं नहीं आता तो स्वयंवर बाला की तुलना स्वर कोकिला से करके देख लीजिये, या फिर अधपके और बेमौसम टपके क्रिकेट विशेषज्ञों की तुलना सचिन तेंदुलकर से करके देख लीजिये. हमारे कहने और आपके सुनने के लिए कुछ बाकी नहीं रह जाएगा.

आपका अपना घसीटाराम
सिद्धार्थ