Thursday 3 February 2011

एक हाथ की दास्ताँ

एक सच्ची घटना पर आधारित जो मेरे भाई के साथ दिल्ली के भीड़ भाड़ वाले इलाके में घटित हुई:

उसका बचपन उससे कुछ पहले चला था,
और वक़्त से पहले वो जवानी की देहलीज पर खड़ा था.

एक पिय्यक्कड़ बाप ने बिन पूछे उसे भिखारी बना दिया,
एक हाथ का है ये कहके रस्ते पर बिठा दिया.

वो चिल्लाया, वो झल्लाया. 
एक हुआ तो क्या हुआ, भारी सब पर बैठेगा,

एक हाथ से जीतूँगा में, तू क्यों कर मुझसे ऐठेगा.

कद बढ़ा काठी बढ़ी, बढ़ा न लेकिन हाथ,
दूजे हाथ ने ढूँढ ली, इस विप्पत्ति की काट.

दर दर भटका, पल पल चटका उस मन का विश्वास,
भिड बैठूँगा, मिट जाऊंगा, नहीं बनूँगा लाचार.

एक हाथ से थाम ली रिक्शा, हमको दी जीने की शिक्षा,
मेरा अज्ञानी मन उस ज्ञानी से मांग बैठा भिक्षा.

उस निर्धन की खिचती टाँगे, भिचती मुट्ठी, पढ़ा गयी ये पाठ,
तीन पहिये उसके रिक्शे के बड़ी बताते बात,
हिम्मत को बोयो, आशा से सीचों, फलेंगे वृक्ष अपार.