Tuesday 4 October 2011

भूले बिसरे दोस्त

देखते ही देखते आठ साल हो गए, और हम पतले से मोटे हो गए,
सोचा जिन दोस्तों के बिना कॉलेज के दिन नहीं कटते थे , उन्हें ही याद कर लिया जाए.
इन आठ सालो में कई महानुभावो की याद अब उतनी ताज़ा नहीं रही लेकिन जो अब भी याद है उनके बारे में चंद पंक्तिया लिख रहा हूँ:

१. भार्गव (उर्फ़ टकला) और उसकी बौखलाहट, चाहे परीक्षा हॉल हो या क्रिकेट की बल हो, ये महाशय हमेशा उतेजित अवस्था में पाए जाते थे. शायद ही कोई ऐसा मित्र हो जिसने इनकी दोस्ती की चरम सीमा न देखि हो. लेकिन शिग्रह ही उसे उसकी मित्रता के साथ पाताल के दर्शन भी करवा देने में इनका कोई तोड़ न था. सनकी मगर दिल की बात को जुबान पर रखने वाले हमारे पहले मित्र.

२. सहाय (उर्फ़ बेटू), ये महानुभाव भार्गव से एकदम विपरीत स्वाभाव के थे, मैच की लास्ट बाल हो या एक्साम में बेहाल हो, इनके चेहरे पर कभी शिकन नहीं देखि गयी. इनके इसी स्वाभाव के चलते इन्हें राजकुमार के नाम से भी जाना जाता था.

३. निखिल (उर्फ़ कौवा), जैसे कौवा सभी जगह कावं कावं करता है, ये शख्स भी हर उस जगह पर मौजूद रहते थे जहा बेफिजूल की बातें हो रही हो. उस बे-सर पैर की बातो में अगर इन्होने अपना सुर न मिलाया तो इनका दिन नहीं बनता था. १५०० रुपये की पैंट के नीचे इन्होने ४० रुपये की स्लीपर नहीं पहनी तो इनको मजा नहीं आता था. कभी एकदम छिछोरे तो कभी एकदम सभ्य, आमतौर पर ये इन्ही दो अवस्थाओ में पाए जाते थे और एक अवस्था से दूसरी में कब पहुच जाते थे, ये शायद इन्हें भी ज्ञात नहीं होता था.

४. कोमेरवार (उर्फ़ टायसन), ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर, ये कहावत इन पर आधी ही सही बैठती है, क्युकि ये सभी को दोस्त बनाने में विश्वास रखते थे और किस्सी से दुश्मनी या बैर रखने की बात से ही सिहर उठते थे. अपने इसी स्वाभाव के चलते इनके दोस्तों में शराबियों, जुआरियो एवं कई अनेक दिलचस्प लोगो का शुमार था.

५. विवेक (उर्फ़ गुना), फ्री के मंगोड़े, फ्री के समोसे और फ्री की हर चीज से इन्हें बेहद प्यार था. कॉलेज के चार सालो में इनके बारे में इतना ही ज्ञात हो पाया

६. राहुल द्विवेदी (उर्फ़ डूबोदी), ये जनाब उलझनों को हमेशा म्य्क्रोसोपिक ग्लास से देखते थे जब तक की वो किस्सी और की हो, खुद की उलझनों के लिए इनके पास हमेशा एक मग्निफ्यिंग ग्लास होता था. हलाकि जीवन के किसी भी पहलू पर बात करने के लिए ये सदेव तत्पर रहते थे और सलाह मागने पर किसी को निराश न करना भी इनके उदार स्वाभाव का एक अभिन्न अंग था भले ही इनकी दी हुई सलाह से बनती बात बिगड़ ही क्यों न जाए.
७. योगेश रावल (उर्फ़ सिर्फ रावल), इनका कोई विशेष स्वाभाव नहीं था, जे हवा का रुख देख कर उसी अनुरूप ढल जाया करते थे, मस्ती का माहोल हो तो मस्त एवं पढाई का माहोल तो एकदम सुस्त.

८. स्वयं हम यानी सिद्धार्थ टेम्बे (उर्फ़ टेम्बे), इन्होने खुद होके कभी किस्सी से दोस्ती नहीं की बस होती चली गयी, ये कभी किस्सी काम में अग्रिम पंक्ति में नहीं पाए जाते थे. चाहे कॉलेज टीम चयन की बात हो या फिर दुसरे ग्रुप से लड़ाई की बात, ये हमेशा नैतिक समर्थन देने में विश्वास रखते थे. अपने सभी ख़ास दोस्तों से इनकी भी कभी न कभी झड़प हो ही जाया करती थी. चार बातें सुनने के बाद, सामने वाले को आठ बाटी ना सुनाई तो इनका खाना हजम नहीं होता था. खैर इनके दोस्तों ने इन्हें कभी नहीं छेड़ा (एखाद अपवाद भी है) एवं इनकी कमियों के बावजूद इन्हें अपना दोस्त बनाये रखा.

इनके अलावा, कई नाम ऐसे भी है जो पल भर के लिए ही सही कुछ दोस्ती के पल बात गए, उनसे ज्यादा संपर्क तो पहले था और ना ही अब है , मगर लाचारी एवं पथ भ्रमित अवस्था में इनका साथ भी मिला: विश्वबंधु शर्मा, आशीष मिश्र, अनुज गर्ग, सुमित मंडल, विकास जैन, तेजेंद्र चतुर्वेदी, विदित त्रिवेदी, कपिल गुप्ता, प्रशांत निगोती इत्यादि इत्यादि.

Monday 29 August 2011

हौंसला

में उस वक़्त जरा दफ्तर की जल्दी में था,
में अपनी गाडी में अकेला और वो कारवा में था.

ये चंद पंक्तिया, उस देशभक्त इंसान के लिए जिसका नाम तो में नहीं जानता लेकिन जो मेरी गाडी के बगल से अपनी व्हील च्हयेर पर फर्राटे से चला जा रहा था, अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का हिस्सा बनकर एक अमिट इतिहास लिखने..... उसका रास्ता न बारिश रोक सकी और ना ही शारीरिक दुर्र्बलता.

सदियों से सुन रहा था वो एक दबी सी आह, 
सिसकियो में उसकी छुपी थी जीने की चाह.

उसका नसीब था बस उसके ही हाथ,
वो पैदा हुआ था कुछ अंग और दो पहियों के साथ.

ये पहिये ही थे जो रहते थे हमेशा उसके संग,
इनके ही सहारे लड़नी थी उसको जीवन की जंग.

जंग जीतना उसका मकसद शायद ही रहा होगा,
दुश्मन से न भिड़ना उसको कही खला होगा,

वैराग्य ने उसके मन को भी कभी घेरा होगा,
उसके घर में भी कभी शाम का डेरा होगा,

कई ख्वाब उसने तह करके तिजोरी में रखे होंगे,
शायद कभी धुप में सुखाने की उम्मीद से रखे होंगे,

उस दिन शायद उसने अपना सूर्य खोज लिया था,
इसलिए अपने पहियों के साथ जोश में था.

उसके हाथ अनवरत पहियों में चले जा रहे थे,
और वहा दिल्ली में बड़े बड़े सिंहासन हिले जा रहे थे. 


Wednesday 20 July 2011

माँ


हर आहट पर कान धरे, वो सोई सोई जगती माँ,
जाडे की मुश्किल सुबहो में , चाय पिलाने उठती माँ।

घर की कुंडी, फाटक, खिड़की, हर कोने में दिखती माँ,
हर मुश्किल को धक्का देके राह दिखाती, हंसती माँ।

बच्चो के चेहरों को चख कर, अपना पेट है भरती माँ,
उनकी ही चिंता को लेकर रातो में है खटती माँ।

चोट लगे जब बच्चो को तो मलहम लेप लगाती माँ,
बच्चो की खुशियों में छुप कर, अपनी चोट छुपाती माँ,

ईटें, गारा, पत्थर, चुना को स्वर्ग बनाती देवी माँ,
हर जीवन को अर्थ सिखाती हम सबकी वो प्यारी माँ,

घर के सुख को आगे रख कर, पीछे चलती निश्चल माँ,
धीरे धीरे मुरझाती और धीरे धीरे घिसती माँ।

छोटे छोटे पौधों को वृक्ष बनाती जननी माँ,
उड़ जाते सब पंछी बनकर, हाथ हिलाती, रोती माँ।

अध् सोई, पथराई आँखों से राह तकती बूढी माँ,
                      कच्चे मैले रस्ते पर, आस टिकाये बैठी माँ।  

Sunday 6 March 2011

बावरा

सयानो की इस महफ़िल में एक बावरा घुस बैठा,
जब बात लफ्जों की चली तो बेबस हो चुप बैठा,
सब ने जब झिड़क दिया उसको, अपने आप में सिमट बैठा,
सयानो की इस महफ़िल में एक बावरा घुस बैठा,

सब ने मान लिया तौहीन इसे शम्मा की, 
जो ये परवाना उस पर जरा मचल बैठा,
सयानो की इस महफ़िल में एक बावरा घुस बैठा,

कुछ टीस थी  बावरे के कलेजे में,
कई सालो से झेल रहा था अकेले में,
सयानो इस इस महफ़िल में गुस्ताखी वो कर बैठा,

बावरे ने कहा, बात इंसानों सी करो, हैवानो सी नहीं,
राम को दिल में रखो, किताबो में नहीं,
अल्लाह को अपनों में ढूँढो, अजानो में नहीं,

नफरत जला देती है मुह्हब्बत की फसल,
कुछ तो निशानी रखो की है हम इंसानों की नस्ल,

लहू उतर आया सयानों की आँखों में,
खीच गयी सभी तलवारें जो रखी थी मयानो में,

कुछ लपक कर पहुचे, बावरे को चीरने,
कॉपते हुए अंतिम साँसे गिनी उस वीर ने,
सबक बावरे को सिखाया गया,
उसकी बगावत को उसी महफ़िल में दबाया गया,

अपनी शक्ति के मद में सयानों ने सिंहनाद किया,
बावरे के शोक में सबने मदिरा पान किया,

महफ़िल बढ चली थी अपने अंत की और,
बाहर कई बावरे खड़े थे थामे उम्मीद की डोर.

आपका अपना,
सिद्धार्थ

Thursday 3 February 2011

एक हाथ की दास्ताँ

एक सच्ची घटना पर आधारित जो मेरे भाई के साथ दिल्ली के भीड़ भाड़ वाले इलाके में घटित हुई:

उसका बचपन उससे कुछ पहले चला था,
और वक़्त से पहले वो जवानी की देहलीज पर खड़ा था.

एक पिय्यक्कड़ बाप ने बिन पूछे उसे भिखारी बना दिया,
एक हाथ का है ये कहके रस्ते पर बिठा दिया.

वो चिल्लाया, वो झल्लाया. 
एक हुआ तो क्या हुआ, भारी सब पर बैठेगा,

एक हाथ से जीतूँगा में, तू क्यों कर मुझसे ऐठेगा.

कद बढ़ा काठी बढ़ी, बढ़ा न लेकिन हाथ,
दूजे हाथ ने ढूँढ ली, इस विप्पत्ति की काट.

दर दर भटका, पल पल चटका उस मन का विश्वास,
भिड बैठूँगा, मिट जाऊंगा, नहीं बनूँगा लाचार.

एक हाथ से थाम ली रिक्शा, हमको दी जीने की शिक्षा,
मेरा अज्ञानी मन उस ज्ञानी से मांग बैठा भिक्षा.

उस निर्धन की खिचती टाँगे, भिचती मुट्ठी, पढ़ा गयी ये पाठ,
तीन पहिये उसके रिक्शे के बड़ी बताते बात,
हिम्मत को बोयो, आशा से सीचों, फलेंगे वृक्ष अपार.

Monday 31 January 2011

रण

जब देश विकट संकट में आया, सब और था मातम छाया,
जब कोई राह न दिखती थी और बस लाचारी ही बिकती थी,
तब वीरो ने ठान लिया, इसको अपना जीवन मान लिया,

अब खून की होली खेलेंगे और बेचारे से न डोलेंगे,
दुश्मन के तेज प्रहारों को हम अपने सीनों पर झेलेंगे,
एक एक घर ने उस दिन पर अपने कई कई जीवन वार दिए,
उन साधारण से इंसानों में कही अली तो कही राम मिले.

एक एक वीर रोके न रुकता था, कोई विरला अवतार ही दिखता था,
रक्त के उस सागर में कई मोती बस डूब गए,
कुछ बोले तो कुछ बिन बोले, कई पावन रिश्ते टूट गए,

उन वीरो ने अपने कंधो पर जब दुश्मन की लाशें ढोयी थी,
तन उन सिंहो की बेबस आँखें भी रोई थी.
कोई निपट अकेला बैठा था तो उसने यु भी सोच लिया,
उस लाशो के जंगल में से एक छोटा बच्चा ढूँढ लिया,

उस बच्चे की आँखों से कुछ निश्चल सपने बहते थे,
अब सूने से एक आँगन में बस उसके अपने रहते है,

बूढ़े बरगद के पेड़ के नीचे एक टूटी गुडिया सोयी थी,
इस कोलाहल से कोसो दूर बस अपनी दुनिया में खोयी थी,

कुछ में जान अभी थी बाकी, कुछ की सांस अभी थी जारी,
कुछ थाम रहे थे जीवन की डोरी, देश भक्ति के नारों से,
कुछ अधसोए से बतिया रहे थे नभ के तारो से.

रात का मंजर लील चूका था, सब जलते बुझते अंगारों को,
कही पतंगा झूल रहा, शम्मा पी लूट जाने को.

एक हाथ हलके से डोला, उसने अपना भार टटोला,
धीरे से उठकर बैठी काया, देखि उसने जलती माया,
कापं गया दिल, गला भर्राया उसने जब मुह खोला.

कैसे कोई लूट गया सब, कैसे पीछे छूट गया सब,
अब यहाँ सियासत होगी, बलिदानों पर बोली होगी,
कही किसी विधवा की सिगड़ी पर पकती नेताओ की रोटी होगी.

कर ले प्रण हम,  न होगी रण अब,
मिल बैठे हम, आज यहाँ मिलके, अभी तो बिछड़े थे हम कलके,
ऐसे भी दिन लायेंगे हम, सोचा न था ये सब हमने.

आपका अपना
सिद्धार्थ