Thursday 19 February 2015

एकांत

२० घंटे की हवाई यात्रा के बाद, जब वो बहुत दूर निकल आया, अपने लोग, अपना घर, अपना शहर और अपना देश बहुत पीछे छोड़ आया, उसका मन काफी सुन्न हो चला था।
एक आलिशान होटल के सुन्दर से कमरे में अपना सामान करीने से लगा के, वो बिस्तर पर लेट गया और आँख लग गयी ।
कुछ घंटे युही बीत गए  और वो सुस्ताता रहा, ना भूक ना प्यास और ना ही कोई विचार।  पूर्ण शून्यता से बाहर आते आते एवं वर्तमान स्तिथि का ज्ञात होते होते शाम ढल गयी।
झरोके से आती रोशनी ने भी अपना आँचल काफी देर पहले ही समेट लिया था।  बुझे मन से उसने अटैची खोली और कुछ खाने का सामन खोजने लगा।
कपड़ो की तहों के बीच कही माँ के दिए हुए लड्डू दिखे, कई पसंदीदा टाई भी राखी हुई थी।
उनमे से एक टाई बड़े चाचा ने पहले लंदन प्रवास पर जाने से पहले भेंट की थी।
क्या मोल होगा इस टाई का, रेमंड के शोरूम में कुछ ५०० रुपये या उससे भी कम,
लेकिन चाचाजी का ख्याल की अपने लाडले के लिए कुछ ख़रीदा जाए ,
टाई के लिए खर्चे हुए पैसे के लिए कही और काट कसर करना ,
इस सब को जोड़ा जाये तो  उसका मोल लगाना मुश्किल ही था।

दूसरी अटैची में कुछ खाने की वस्तुऍ भी दिखी, कुछ मैग्गी एवं सूप के पैकेट,
दाल, चावल, कुकर, बर्तन, सभी तरीके से राखी गयी वस्तुओ में पत्नी की चिंता एवं प्रेम दिखा।

अगले दिन मार्किट में कुछ खरीदने लगा तो बिटिया की पसंद की कुछ चीज़े दिखी,
अमूमन माता पिता कभी कुछ मना तो नहीं करते खरीदने से,
लेकिन फिर भी कभी कभी डांट डपट दिए ही जाते है बच्चे।


एकांत प्रिय होना एवं एकांकी होना , शायद दोनों अलग है।
अगले कुछ दिन वह इन्ही सब विचारो की उहा-पोह में लगा रहा फिर दफ्तर की व्यस्तता में टाई, लड्डू एवं बर्तन सब ज्यु के त्यु पड़े रहे पर ये दर्शा गए की एकांत में स्वयं से साक्षात्कार होने की पहली पायदान सबसे कठिन है।
आगे काफी ज्ञान दर्शन होना स्वाभाविक है परन्तु हम प्रायतः इस पहली पायदान से ही लौट जाते है।