Sunday 23 November 2014

AMI

अपने बचपन का वो धुंदला सा चित्र जो समय के अनवरत चलते चक्र के साथ और भी धूमिल होता हुआ।  इस दुनियादारी के फेर फसे हुए प्रौढ़ हो चुके मस्तिक्ष के अंदर छुपा बैठा एक छोटा सा शैतान बच्चा।

वो बच्चा जिसने इस स्कूल के किसी कोने में अपनी पेंसिल छुपाई थी, शायद स्टेज के पास वाली क्लास में वो आज भी पड़ी हो, या फिर पोंड के पास खोया हुआ हरी बोतल का एक ढक्कन जो आज तक नहीं मिला।

ऐन मोके पे वो हारा हुआ मैच , वो भगवन भरोसे पकड़ा हुआ कैच। 
सब कुछ बहुत धुंदला पड़ चूका है, कुछ तो मिट भी चूका है,
पर कुछ अंश अब भी शेष है, उनमे इतना कुछ न विशेष है पर फिर भी याद है.

वो एक पुराने दोस्त के साथ बदले गए कुछ प्ले कार्ड्स, शायद किसी च्युइंग गम के साथ मिला करते थे। वो एक कोई पंजाबी दोस्त के टिफ़िन के पराठे बहुत लज़ीज़ हुआ करते थे।

वो प्रेयर के वक़्त विमल ताई के पड़े हुए हाथ, वो जूनियर  बच्चो को डराने में शर्माजी का साथ.
वो जीवाजी हाल में बिताया गया मुश्किल वक़्त, जहां जूते के लैस खुलने का टेंशन सबसे बड़ी समस्या लगती थी।

वो म्यूजिक वाली ताई (शायद भिसे ताई) का अटूट विश्वास की में इस बेसुरे से भी सुर लगवा ही लूंगी।
शायद उन्ही के भरोसे से हमे कला वीथिका में ग्रुप सांग में फर्स्ट प्राइज मिला था।

वो तबले वाले सर का तग बग तग बग निकालना, वो बेमन से क्राफ्ट पीरियड में कागज़ के फूल बनाना।


जब समेटने बैठो तो लगता है की कितना कुछ है जो अब भी याद है।

Unfortunately, I left school in 6th grade (1991) and some of my classmates are still my best friends. So, Thank you is a pretty meaningless and belittling word to acknowledge the importance and contribution of this school in our lives.