जब देश विकट संकट में आया, सब और था मातम छाया,
जब कोई राह न दिखती थी और बस लाचारी ही बिकती थी,
तब वीरो ने ठान लिया, इसको अपना जीवन मान लिया,
अब खून की होली खेलेंगे और बेचारे से न डोलेंगे,
दुश्मन के तेज प्रहारों को हम अपने सीनों पर झेलेंगे,
एक एक घर ने उस दिन पर अपने कई कई जीवन वार दिए,
उन साधारण से इंसानों में कही अली तो कही राम मिले.
एक एक वीर रोके न रुकता था, कोई विरला अवतार ही दिखता था,
रक्त के उस सागर में कई मोती बस डूब गए,
कुछ बोले तो कुछ बिन बोले, कई पावन रिश्ते टूट गए,
उन वीरो ने अपने कंधो पर जब दुश्मन की लाशें ढोयी थी,
तन उन सिंहो की बेबस आँखें भी रोई थी.
कोई निपट अकेला बैठा था तो उसने यु भी सोच लिया,
उस लाशो के जंगल में से एक छोटा बच्चा ढूँढ लिया,
उस बच्चे की आँखों से कुछ निश्चल सपने बहते थे,
अब सूने से एक आँगन में बस उसके अपने रहते है,
बूढ़े बरगद के पेड़ के नीचे एक टूटी गुडिया सोयी थी,
इस कोलाहल से कोसो दूर बस अपनी दुनिया में खोयी थी,
कुछ में जान अभी थी बाकी, कुछ की सांस अभी थी जारी,
कुछ थाम रहे थे जीवन की डोरी, देश भक्ति के नारों से,
कुछ अधसोए से बतिया रहे थे नभ के तारो से.
रात का मंजर लील चूका था, सब जलते बुझते अंगारों को,
कही पतंगा झूल रहा, शम्मा पी लूट जाने को.
एक हाथ हलके से डोला, उसने अपना भार टटोला,
धीरे से उठकर बैठी काया, देखि उसने जलती माया,
कापं गया दिल, गला भर्राया उसने जब मुह खोला.
कैसे कोई लूट गया सब, कैसे पीछे छूट गया सब,
अब यहाँ सियासत होगी, बलिदानों पर बोली होगी,
कही किसी विधवा की सिगड़ी पर पकती नेताओ की रोटी होगी.
कर ले प्रण हम, न होगी रण अब,
मिल बैठे हम, आज यहाँ मिलके, अभी तो बिछड़े थे हम कलके,
ऐसे भी दिन लायेंगे हम, सोचा न था ये सब हमने.
आपका अपना
सिद्धार्थ
जब कोई राह न दिखती थी और बस लाचारी ही बिकती थी,
तब वीरो ने ठान लिया, इसको अपना जीवन मान लिया,
अब खून की होली खेलेंगे और बेचारे से न डोलेंगे,
दुश्मन के तेज प्रहारों को हम अपने सीनों पर झेलेंगे,
एक एक घर ने उस दिन पर अपने कई कई जीवन वार दिए,
उन साधारण से इंसानों में कही अली तो कही राम मिले.
एक एक वीर रोके न रुकता था, कोई विरला अवतार ही दिखता था,
रक्त के उस सागर में कई मोती बस डूब गए,
कुछ बोले तो कुछ बिन बोले, कई पावन रिश्ते टूट गए,
उन वीरो ने अपने कंधो पर जब दुश्मन की लाशें ढोयी थी,
तन उन सिंहो की बेबस आँखें भी रोई थी.
कोई निपट अकेला बैठा था तो उसने यु भी सोच लिया,
उस लाशो के जंगल में से एक छोटा बच्चा ढूँढ लिया,
उस बच्चे की आँखों से कुछ निश्चल सपने बहते थे,
अब सूने से एक आँगन में बस उसके अपने रहते है,
बूढ़े बरगद के पेड़ के नीचे एक टूटी गुडिया सोयी थी,
इस कोलाहल से कोसो दूर बस अपनी दुनिया में खोयी थी,
कुछ में जान अभी थी बाकी, कुछ की सांस अभी थी जारी,
कुछ थाम रहे थे जीवन की डोरी, देश भक्ति के नारों से,
कुछ अधसोए से बतिया रहे थे नभ के तारो से.
रात का मंजर लील चूका था, सब जलते बुझते अंगारों को,
कही पतंगा झूल रहा, शम्मा पी लूट जाने को.
एक हाथ हलके से डोला, उसने अपना भार टटोला,
धीरे से उठकर बैठी काया, देखि उसने जलती माया,
कापं गया दिल, गला भर्राया उसने जब मुह खोला.
कैसे कोई लूट गया सब, कैसे पीछे छूट गया सब,
अब यहाँ सियासत होगी, बलिदानों पर बोली होगी,
कही किसी विधवा की सिगड़ी पर पकती नेताओ की रोटी होगी.
कर ले प्रण हम, न होगी रण अब,
मिल बैठे हम, आज यहाँ मिलके, अभी तो बिछड़े थे हम कलके,
ऐसे भी दिन लायेंगे हम, सोचा न था ये सब हमने.
आपका अपना
सिद्धार्थ
क्या बात है ! बहुत बढिया ! इतने सवेंदनशील विषय पर इतनी गहरी सोच काबिले तारीफ है ! देशभक्ति ,करुणा, व्यंग सब कुछ ! इतना अच्छा कैसे लिख लेते हो ! कीप इट अप !
ReplyDeleteAmazing!!
ReplyDeleteEvery single word was an outcome of the concert that I attended. That environment was overwhelming and I guess if one keeps attending such programs, writing will be a fun thing to do.
ReplyDeleteGreat work Sid. Probably it will come out still more effective if you focus on one central message as against accomodating multiple messages in one poem.
ReplyDelete@Jiju- Sure Jiju, try karta rahunga kuch na kuch
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