Thursday 9 January 2014

काका


मेरे, दादा के, हम सबके अप्पा काका, २८ दिसंबर २०१३ को हमे और सुदृढ़ बनाने के लिए हमसे दूर चले गए. हमे समझाया जाता है और हम औरो को समझाते है कि ये सृष्टि का नियम है. कई ऐसी बाते है जो वक़्त के साथ मधुर स्मृतिया बन के हमारे ह्रदय में काका को जीवित रखेंगी।
हमारे स्कूल कि बस पर सुबह ७ बजे हमे छोड़ने जाना, हमारे हित के लिए कई तरह कि पूजा अर्चना करना , तावीज बांधना। इस सब से कुछ असर होता था या नहीं पर अच्छा लगता था उनका प्यार और फ़िक्र देख कर. एक अदृशय सा कवच होते है बुजुर्ग। उनके चले जाने से एक रिक्त स्थान रेह जाता है. हम वक़्त के साथ आगे बढ़ जाते है, और हमारा बचपन कही बहुत पीछे छूट जाता है.

धन्यवाद् एक बहुत छोटा शब्द है. अपने बुजुर्गो के आशीर्वाद और प्यार पर अपनी कॄतयज्ञता दर्शाने के लिए कोई भी शब्द छोटा ही लगेगा। आज हमारे अंदर जो लाखो कमिया है उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी है कि आप कि हज़ार कोशिशो के बावजूद स्वसुधार कि दिशा में हम कुछ ख़ास न कर सके परन्तु अगर इस नश्वर देह और व्यक्तितव में कोई एक अंश मात्र भी सद्गुण है तो वो आप बुजुर्गो कि देन है.


नन्हे पौधे विस्मय से ताकते उस विशाल वृक्ष को, कई लताए नागपाश सी लिपटी हुई,
कुछ सकुचाती हुई सी तो कुछ निर्भीकता से उसे जकड़ी हुई.

कई विपदाओ का साक्षी और कई खुशियो में भागिदार,
उस वृक्ष कि शाखाओ में था अनेक किस्से कहानियो का अम्बार।

कई जीवन पल्लवित करता और कई आघात झेलता,
कितने पथिको को छाँव और कितने पक्षियों को आश्रय देता।

संवेदना एवं करुणा के रस से तर,
वो डटा रहा प्रतिकूल समय में निरंतर,

उसके तने कि झुर्रियों कि परवाह किसी को न थी,
उसके विराट ह्रदय कि थाह किसी को न थी।

अनंत काल से अचल वृक्ष अब बूढ़ा हो चला था,
बुढ़ापे के जाड़े में बस ठिठुरता खड़ा था।

उसकी हरित आभा अब कुछ कुंद हो रही थी,
पुनः सूर्य को देखने कि इच्छा भी मंद हो चली थी।

हम अबोध एवं निरीह पौधे बने , रचते रहे अपनी दुनिया,
बुनते रहे अपने सपने, चुनते रहे नयी गलियां।

एक दिन उस विशाल हृदयी वृक्ष ने मोह माया का त्याग किया,
बड़ो से माफ़ी मांगी और छोटो को माफ़ किया,

माना उस वृक्ष का भौतिक अस्तित्व समाप्त हुआ,
लेकिन उसके प्रेम का अंकुर असंख्य रोपों में व्याप्त हुआ।

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