आज सुबह उठने के बाद से ही मन कुछ विचलित सा था. कई दिनों से मीडिया २६ नवम्बर को लेकर कई लेख और कई अनुभव, प्रकाशित कर रहा है. आज पूरा एक साल हो गया उस मनहूस दिन को, जब हम से कोई साठ साल पहले बिचड़े भाइयो नए मुंबई में आकर कहर बरसाया था.
निहत्थो पर शस्त्र चलाने के लिए किसी शौर्य की आवश्यकता नहीं होती, उसके लिए तो ज़रुरत होती है कायरता और द्वेष से भरे हुए कलुषित मन की. मासूम बच्चो, लचर बुढो और उज्वल भविष्य का सपना लिए काम पर निकले हुए सेकड़ो युवाओ को इतनी बर्बरता से मारने वालो को तो नरक का दरोगा भी अपने यहाँ जगह न दे.
कुछ ही दिनों पहले पढ़ा की जिन ९ आतंकियों को पुलिस नए मार गिराया था, उन्हें अभी तक ज़मीन नसीब नहीं हुई है और उनके शव आज भी मुर्दाघर में पड़े है. भारतीय मुस्लिम संगठनो नए उन्हें अपनाने से इनकार कर उनके किये कार्य को अल्लाह और इस्लाम के खिलाफ बताया है.
खैर, शव को आग या मिटटी नसीब हो न हो, मानवता पर लगे इस ज़ख्म को आज एक साल पूरा हो गया और ये ज़ख्म आज भी उतना ही हरा है जितना पहले दिन था.
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