Sunday, 1 November 2009

खिड़की से बाहर

ये कविता मैं अपने छोटे से परिवार को समर्पित करता हूँ , आप सभी है तो ज़िन्दगी मैं  कोई कमी नहीं.


अपनी खिड़की से बाहर दुनिया हमेशा हसीं नज़र आती है.
घर की छोटी सी दुनिया और छोटी नज़र आती है.

अपनों के प्यार से ज्यादा गैरों के ताने ही मज़ा देते है.
ममता के रस में डूबे निवालों की जगह बेरुखे चेहरे चखने की सजा देते है.

बाप की चिंता, माँ की ममता, सब पीछे रह जाता है.
भाई का लड़ना, बहिन का चिड़ना, बस यादें ही बन जाता है.

कहने को व्यापर नहीं पर हम प्यार का सौदा करते है.
इस रंग बदलती दुनिया में हम साथ तराजू रखते है.

मौल भावः के चक्कर में, हम दाम लगाते जाते है,
खिड़की के बाहर के संसार में खोते जाते है.

खिड़की के अन्दर की दुनिया में कुछ विरले लोग ही रहते है,
मील के पत्थर के जैसे, वो स्थायी ही रहते है.

उनको जब भी याद करो , वो दौडे दौडे आते है,
आगा पीछा सब भूल के, बस बाहों में खो जाते है,

1 comment:

  1. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति सिद्धार्थ जी ..लिखते रहें...और हां फ़ोंट को बडा रखें..पढने में सुविधा होगी...

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