जो सहना था वो सह चुके, जो खोना था वो खो चुके,
अब काहे का रोना है, अब तो फैसला होना है.
बहुत पुरानी बात है, हम भी भगवा लेकर दौड़े थे, खाकी की एक चड्डी और हाथ में डंडा लेकर बोले थे.
अब डंडे की जगह ठन्डे बस्ते में है, कल के मसीहा, आज सभी रस्ते में है.
पुश्तैनी सी एक इमारत जब ढेहना था तब डह गयी, जो कहना था सो कह गयी,
अब लकीरे हम क्यों पीटे,रस्सा तानी हम क्यों खिचे.
कई सवाल ऐसे भी थे जो मस्जिद के संग डह न सके, और भगवे की धरा के संग बह न सके.
वो सवाल हम आज भी चिढाते है, भूके बच्चे जैसे बिलबिलाते है,
वो सवाल हमे कचोटते है, और हम बैठे ये सोचते है.
जो सहना था वो सह चुके, जो खोना था वो खो चुके,
अब काहे का रोना है, अब तो फैसला होना है.
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Good one, nice timing
ReplyDeleteWow!
ReplyDeleteToo Good poem Sid :)