Friday, 30 March 2012

Dosti ka hisaab

आओ पास बैठो दोस्त, अपना कुछ पुराना हिसाब कर ले,
कुछ तुम्हारे एहसान जोड़ ले, कुछ मेरी नादानियाँ घटा ले,


कुछ हँसी, ठिठोलियाँ, कुछ गलती से , कुछ जुर्रत से की हुई गुस्ताखियाँ,

कई चीजो का हिसाब करना पड़ेगा यार, कितने ही पलों को जोड़ना घटना पड़ेगा बार बार.


कई नोटों की गड्डियो में ढूंढे से न मिले, तुमसे उधार लिए हुए कुछ अदद पैसे,
छीना झपटी में फटे कुछ कपडे, कुछ हक़ से जमाये हुए थप्पड़,
मेरी नियत हमेशा साफ़ ही रही है , मगर इन चीजों को ढूँढने में नाकाम ही रही है  दोस्त,




कॉलेज के एक कमरे में न जाने कितनी दोस्तियों ने जगह बनायीं,
आज इतनी जगह है फिर भी दोस्तियाँ नहीं बन ,

कितनी बार हिसाब किया पुराने जिल्द चढ़े बही खाते निकाले,
गिले शिकवे, और दोती के सिले, ऐसे कई हिसाब उनमे भी न मिले,  


तो दोस्त, कभी फुर्सत निकालते है, अपनी पुरानी महफ़िल फिर जमाते है,
 हिसाब के बहाने ही सही, एक बार फिर से एक दुसरे को गले से लगते है,


हमारे बीच कभी कोई अनबन नहीं है, लेकिन ये मत कहना की अब वो मन नहीं है,
में अपने आप ही को सुलझा रहा हु दोस्त, तुम्हे लेकर अब कोई उलझन नहीं है.

आखरी पंक्तिया मंगल नसीम जी की पंक्तिया है


 



 

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