Thursday, 29 October 2009

ये शहर, वो शहर

ऐसे ही चला जा रहा था अपने अपने बचपन के शहर में,  हर नुक्कड़ हर गली को ध्यान से देखता हुआ।

हाथ में थैला और दिल में कुछ अजीब सी अनछुई और अल्हड सी यादें।
हर मन्दिर, हर दरगाह मुडमुड कर देखता हुआ,  याद करता जा रहा था, हर वो पल बिताया हुआ।

कहीं से कोई आवाज़ देकर रोक लेता तो अच्छा लगता,
कभी में किस्सी को हाथ दिखाकर बुला लेता तो अच्छा लगता।
यहाँ सब मुझे जानते है, मेरी आवाज़, मेरी हस्ती को पहचानते हैं,

मिलते है तो दिल को छु लेते हुए प्यार से पूछते है की कैसा है और कहा है।
उनसे बतियाते हुए मैं कभी नही थकता, उन अपनों की चिंता करना बिल्कुल नही अखरता, मिलता जाता हु सबसे हंसकर, सोचता हु की कही और कोई मेरी इतना चिंता क्यूँ नही करता।

जिस दफ्तर मैं अपना सारा दिन बिताता हु, वह कोई मुझे नही जानता,
इतने सालो के बाद भी, बिना आई-कार्ड के नही पहचानता।

सुबह लेट पहुंचू ऑफिस तो कोई खैरियत नही पूछता।
पूछते है तो सिर्फ़ ये की लेट क्यों हुआ और कल का काम अब तक क्यों नही हुआ।

रात मैं घर लौटते वक्त रास्ते मैं कोई मन्दिर क्यों नही पड़ता,
मेरे बचपन के शहर की तरह, यहाँ सुबह सुबह कोई नमाज़ क्यों नही पढता।

इस शहर में हर बरस मेला क्यों नही लगता,
और छोटी सी बात पर आपस में कोई क्यों नही झगड़ता।

इस अनजान शहर में अपनेपन के अलावा कोई कमी नही है,
पर मेरे पुराने शहर की लाख कमियों में भी एक अनपढ़ सी खुशी क्यों है।

कल ये नया रंगीन शहर, रोजाना की तरह अपने बेरंग दिन को झेलेगा,
और वहा मेरे बचपन का शहर रंगों से खुल कर खेलेगा।

...... सिद्धार्थ

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