Thursday, 22 July 2010

ऊपर उठने की मुसीबत

सोचा आज सुबह सुबह कुछ लिखा जाए, कुछ सुझा नहीं तो कल रात को लापतागंज की कहानी का शीर्षक ही मन को भा गया, "ऊपर उठने की मुसीबत". ऊपर उठने से लेखक का तात्पर्य स्वर्ग सिधारना नहीं था अपितु अपने समकक्ष लोगो की नजरो में ऊपर उठने से आम आदमी के जीवन में जो समस्याएं होती है , शरद जोशी जी ने उनका बखूबी वर्णन किया है.
जैसे भारतीय रेल में कभी अकेलापन नहीं लगता, वैसे ही भारतीय विमानों में कुछ भी भारतीय नहीं लगता. लोग एकाएक सभ्य एवं अंग्रेजी भाषी बन जाते है. किसी का पाँव किस्सी से टकरा गया तो सभ्यता की पराकाष्ठ ही हो जाती है लेकिन रेल में दूसरो के पाँव को ज्यादा भाव नहीं दिया जाता और उन्हें कुचलना एक अलिखित नियम माना जाता है.
ऊपर उठ कर आदमी अकेला महसूस करता है क्युकि उसके साथ वाले तो वही नीचे खड़े रह जाते है. कुछ नीचे खड़े होकर ऊपर उठने वाले की सराहना करते है तो कुछ ख्वामखा ही मुह बिगाड़ कर बैठ जाते है.
ऐसे में उप्पर उठने वाले को उंचाई से कुछ दीखता तो है नहीं और वो अपनी ही तन्द्रा में रहता है, जिसे अभिमान समझ लिया जाता है. वाकई देखा जाए तो ये अभिमान ना होकर, उंचाई पर मिले अपने नए साथियो से तारतम्य बिठानी की एक कोशिश हो तो होती है.
शरद जोशी जी की कहानियो से काफी कुछ सीखने को मिलता है और एक धारावाहिक के जरिये कहानी के सार को समझना काफी सरल है.

आपका अपना
सिद्धार्थ

1 comment:

  1. शरद जोशी के व्यंग्य जीवन की धार हैं..

    ReplyDelete