Sunday 4 July 2010

मूर्खता का नाच

आमिर हो या गरीब, मंत्री हो या संत्री, सभी सनसनी फ़ैलाने में जुटे हुए है. अवसर चाहे तीज त्यौहार का हो या जनम मरण का, सभी का एकमेव उद्देश्य है अपनी प्रचिती से अपने ही जैसे मूर्खो पर धाक जमाना और अपने ही जैसे महामूर्खो से भरे इस समाज में एक महामूर्ख का दर्जा पाना.
एक ढूँढने बैठेंगे तो एक सेकड़ा मिल जायेंगे जो अपना धन , मन और जरूरत पड़ने पर तन लगा कर प्रस्सिधि पाने में जुटे हुए है. किस्सी का बचपन झींगा मछली न खाते हुए बड़ा ही कष्टमय गुजरा तो किस्सी ने अपनी पत्नी की कामयाबी के दीयों से अपने ही घर में आग लगा ली.
वैज्ञानिक भी मनुष्यों के इस अकस्मात् चरित्र पतन से भोचक्के है की मनुष्य की स्वभिनाम नामक ग्रंथि, जो उसे ऐसे चरित्र पतन से बचाती थी, एकाएक गायब कहा हो गयी.
कही किसी के स्वयंबर रचे जा रहे है तो कही कुछ अपना चीर हरण करवाने को बेताब है, कही कोई ऊपर उठने के लिए नीचे गिर रहा है तो कही हम जैसे घसीटाराम अपनी लेखनी को घिसे जा रहे है. भई, मानिये या न मानिये, ये सभी सनसनी फ़ैलाने और प्रसिद्धि पाने के हत्कंडे ही तो है.
भला हो कुछ बुद्धिजीवियों और मेहनतकश लोगो का जो आज भी सफलता के लिए लम्बा रास्ता तय करने से नहीं कतराते. यकीं नहीं आता तो स्वयंवर बाला की तुलना स्वर कोकिला से करके देख लीजिये, या फिर अधपके और बेमौसम टपके क्रिकेट विशेषज्ञों की तुलना सचिन तेंदुलकर से करके देख लीजिये. हमारे कहने और आपके सुनने के लिए कुछ बाकी नहीं रह जाएगा.

आपका अपना घसीटाराम
सिद्धार्थ

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