Sunday 4 July 2010

किस्सा ऑफिस का

एक दफा हमे सरकारी दफ्तर के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, अचरज की है बात पर ये चमत्कार हुआ.
बचपन से किस्से, कहानियो, व्यंगो और उपहासो में पाए जाने वाले प्राणी, यानी हमारे सरकारी कर्मचारी,
साक्षात् हमारे खड़े थे, कुछ सोये, कुछ लेटे और कुछ तो औंधे ही पड़े थे.


हमने व्याकुलता के साथ मेज थपथपाई, जिम्मेदार नागरिक होने की पहली ओपचारिकता निभायी,
बाबु ने आँखें खोल के उप्पर से नीचे तक टटोला और सामने पड़े ऐतिहासिक दस्तावेजो को एक और धकेला.


बिना शिष्टाचार को बीच में लाये, वो सीधे मुद्दे की बात पर आये, बोले क्या काम करवाना है,
हमने कहा जी शादी का प्रमाण पत्र बनवाना है. वो बोले बस, यहाँ तो देखो घर भी बनवाना है.


आप लोगो का सहयोग रहा तो वो भी बन जाएगा, और देखते ही देखते पेट्रोल पम्प भी तन जाएगा.
छोटी कुर्सी पर इतनी बड़ी महत्वकंशाओ का बोझ देख, हमने अपना बटुआ टटोला.


बटुए में पड़े आखरी नोट पर बने गाँधीजी घबराए, ऐसे राष्ट्र का पिता होने पर थोडा शर्माए.
बापू से प्रेरित हो, हमने बाबु को असहयोग की धमकी दे डाली.
बिना विचलित हुए बाबु ने हमारी फाइल हमे मुह पर दे मारी.

बाबु बोला बापू के सिद्धांतो को तो भ्रष्टाचार कब का लील गया,
तुम तो एक जगह ही अटके हो, अशोक चक्र से सीखो और निरंतर चलते रहो.

हमने बापू से क्षमा मांगी और बाबु से दोस्ती बढाई,
कुछ सेवा हमने की तो उसने फाइल आगे खिसकाई,

हमारे अपराध बोध से ग्रसित मन को हमे समझाया,
जमाना बापू का नहीं बाबु का है, इस बात से उसे अवगत कराया,

आपका अपना घसीटाराम,
सिद्धार्थ

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