मनुष्यों के इस जंगल में मनुष्यता कहाँ गई।
सभ्यता के इस आडम्बर में, चंचलता कहाँ गई।
मस्तिक्ष के इस जाल में, कई कई विचित्रता।
हर कहीं विवशता और हर कहीं अशक्तता।
किंतु परन्तु के चक्रव्यूह में, कई कई प्रश्न है।
परस्तिथि की धुरी पर घूमता ये विश्व है।
अंतर्मन के द्वंद में जीतता क्यों कंस है।
कृष्ण की आराधना में लीन फ़िर भी भक्त है।
विश्वास को लिए हुए, निर्भय निडर ये रक्त है।
विज्ञान से अज्ञान हो चंचल मद मस्त है।
.... सिद्धार्थ
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