Thursday, 29 October 2009

चाय का समय

घर में अकेलापन काटने को दौड़ता है, यही विचार मन में लिए हुए वह बरामदे में ही बैठी रही। कभी तीन उधमी मगर लाडले बच्चो को अपनी ममता से नहलाते हुए नही थकती थी, मगर आज इस उजाड़ घर में एक छाया मात्र बन के रह गई है वो।

आँगन में खड़ी कार को देखा तो बड़े बेटे की जिद याद आ गई की कैसे उसने एक हफ्ते तक घर में कोहराम मचाया था और तभी शांत हुआ था जब अपने पिताजी को कार खरीदने को राज़ी कर लिया था। शाम के ४ बज चुके थे तो आदतन पैर रसोई की तरफ़ उठ गए , चाय बनाने के लिए, लेकिन बीच में ही फफक कर रो पड़ी , ना जाने कौनसी बीती बात आँखों को भिगो गई और वो चाय बिना पीये ही फ़िर से बहार आ गई।
शाम ढलने से पहले ही मुह्हल्ले के बच्चो ने सामने पड़े मैदान पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी। कितनी यादें है जो सब भूल चुके है, लेकिन ये नही भूलती। नही भूलती की कैसे दिन भर रसोई में खटने के बाद भी उसके बच्चे भूक भूक चिल्लाते थे और उसकी नाक में दम करे रहते थे। कैसे बड़े को पढ़ाई के लिए जबरदस्ती बिठाना पड़ता था तो छोटा बाहर निकलने के नाम से ही घबराता था और उस चोटी सी चुहिया को बन्ने सवरने से ही फुर्सत नही मिलती थी।
आज बड़ा कलेक्टर बन चुका है और हर महीने इक दफे अपने गाव ज़रूर आता है तो छोटा , जो घर से बाहर ही नही निकलता था, अब सालो साल लौट कर नही आता, इक बार जो विदेश गया फ़िर पलट कर घर की और नही देखा उसने और उस चोटी सी चुलबुली लड़की को घर गृहस्थी सँभालते हुए देख कर वो गर्व से फूली नही समाती।
अपने दुःख को थोडी ही देर में भुला कर, इक संतोष की साँस के साथ वो फ़िर चाय पीने के लिए घर के अन्दर लौट आई।

1 comment:

  1. khaka achchha hai. vistaar maangti hai rachna.shayad bhavishy ke liye yojna ho.
    shubhkaamnaaen.

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